मुगल वास्तु कला : प्रमुख विशेषताएं
जिस कला को मुगल स्थापत्य कला पुकारा जाता है, वह मध्य एशिया की इस्तामी कला और भारतीय
हिन्दू कला का मिश्रित रूप है। इस
कला की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार थी-
(1) भवन निर्माण की योजनाएँ बड़े पैमाने पर तैयार की गई थी, विशाल भवनों का निर्माण हुआ
(2) इस काल में श्रेष्ठ भवन निर्माण सामग्री का प्रयोग हुआ। सल्तनत काल में रोडी और कभी-कभी बलुए पत्थर का प्रयोग होता था, परन्तु इस काल में बलुआ पत्थर का प्रयोग आम हो गया और बाद में संगमरमर के विशाल भवन बनाए गए ।
(3) निर्माण पूर्व आयोजन (नक्शा आदि बनाना) की तरफ विशेष ध्यान दिया गया था।
(4) मुगलों ने पहली बार आकार और डिजाइन की विविधता के संबंध में प्रयोग किया तथा सामग्री के रूप में पत्थर के अतिरिक्त पलस्तर और गचकारी(Stucco)
की ओर विशेष ध्यान दिया। भवनों के अलंकरण पर विशेष ध्यान दिया गया। जिसमें संगमरमर के पत्थर पर जवाहरात से की गई जड़ावट ( पच्चीकारी- पित्रा ड्यूरा, विशेष रूप से उल्लेखनीय है
(5) प्राकृतिक परिवेश से पूर्ण सामंजस्य स्थापित किया गया है। समतल निर्माण, को महत्व देने के कारण बहुतलीय भवनों का निर्माण नहीं किया गया है। जालीदार दीवारों का निर्माण इस तरह से किया गया है कि इनसे अंदर आने वाला प्रकाश दिव्य दृश्य उपस्थित करता है।
(6) मुगलों ने भवनों के सौंदर्य को बढ़ाने के लिए उद्यानों और स्वतंत्र उद्यानों के निर्माण की विशेष कला का भी विकास किया। उनके द्वारा बनाए गए सभी मकबरों में फारसी चार बाग पद्धति के चौकोर उद्यानों का सांकेतिक प्रदर्शन किया गया है। इस्लाम की पौराणिक कथाओं में हस्त बिहस्त (8 स्वर्ग) के रूप में स्वर्ग की कल्पना की गई है। ये उद्यान धरती पर उस कल्पित स्वर्ग के प्रतीक थे। यह मृतकों में दैवत्व के प्रतिरोपण का प्रयास भी माना जा सकता है।
(7) मुगल वास्तुकला में फारस, तुर्की,मध्य एशिया, गुजरात, बंगाल, जौनपुर आदि सभी स्थानों की परम्पराओं का अभूतपूर्व मिश्रण हुआ है।
मुगल स्थापत्य कला उस प्रक्रिया का चरमोत्कर्ष था, जो भारतीय इस्लामी वास्तुकला के मिश्रण से शुरू हुई थी। (फिरोजशाह तुगलक के काल में निर्मित फिरोजशाह कोटला की
स्थापत्य कला भारतीय इस्लामी मिश्रित शैली के आरंभिक नमूनों में से एक है)।
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