जैन
धर्म
जैन शब्द संस्कृत के 'जिन' शब्द से बना
है जिसका अर्थ होता है जीतना अर्थात जो इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ले वह जैन कहलाता
है। विविध भौतिक वासनाओं को नियंत्रित कर ले जो आध्यात्मिक विजय प्राप्त करें वही जैन हैं।
जैन धर्म के प्रवर्तकों को तीर्थंकर कहा
जाता है। तीर्थ का अर्थ होता है भौतिक संसार से मुक्ति का मार्ग ,अर्थात सांसारिक जीवन
के कर्म फलों से मुक्ति का उपाय बताने वाले तीर्थंकर कहलाते हैं।
जैन धर्म में साधु ,साध्वी श्रावक और
श्राविकाएं यह चार तीर्थ बताए गए हैं।
प्राचीनता
महावीर स्वामी जैन धर्म के संस्थापक नहीं
थे ,वरन वे इस धर्म के 24वें अर्थात अंतिम तीर्थंकर थे।
वैसे तो माना जाता है कि जैन धर्म अनादि काल से चला आ रहा है ,लेकिन
वर्तमान युग में प्रचलित जैन धर्म की स्थापना का श्रेय प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव
(आदिनाथ) को दिया जाता है।
इससे स्पष्ट है कि जैन धर्म ई.पू. छठी
शताब्दी की देन नहीं है। कुछ विद्वान इसका संबंध पूर्व ऐतिहासिक काल /आद्य ऐतिहासिक
काल से जोड़ते हैं। वे इसका संबंध सिंधु सभ्यता
से प्राप्त योगी की मूर्ति के साथ जोड़ते हैं। इस प्रकार कुछ अन्य विद्वान ऋग्वेद में
उल्लेखित तपस्वी और जैन श्रमणों से संबंध स्थापित
करते हैं। वैदिक साहित्य (ऋग्वेद )में भी प्राचीन जैन तीर्थंकरों के नामों का आभास
मिलता है यद्यपि विद्वान इस विषय पर एकमत नहीं है जैन तीर्थंकर जैन तीर्थंकरों का जैन
धर्म की उत्पत्ति और विकास में महत्वपूर्ण योगदान था कुल 24 तीर्थंकर हुए थे इनमें
से कुछ का विवरण इस प्रकार है :
प्रथम तीर्थंकर :ऋषभदेव(आदिनाथ )
ऋषभदेव जिस समय उत्पन्न हुए थे उस समय
भारत प्राय: असभ्य और बर्बर था। यहां के निवासी भोजन पकाने के लिए अग्नि का प्रयोग
तक नहीं जानते थे। पूर्ण रूप से निरक्षर थे। उस समय विवाह संस्था का भी उदय नहीं हुआ
था। लोग शवों को न गाढ़ते थे और न जलाते थे। इस प्रकार के सभ्य समाज को सभ्यता का प्रथम
पाठ ऋषभदेव ने ही पढ़ाया था।
जैन अनुश्रुतियों के अनुसार वे इक्ष्वाकु
भूमि (अयोध्या )में उत्पन्न हुए थे। वह चक्रवर्ती थे। हजारों वर्ष के शासन के बाद उन्होंने
अपने पुत्र भरत को राज अधिकारी बनाया और स्वयं ज्ञान प्राप्ति के बाद तीर्थंकर बन गए।
बाहुबली भी ऋषभदेव के पुत्र थे जिनका राज्य के लिए भरत के साथ संघर्ष हुआ था लेकिन
संघर्ष के दौरान ही वे साधु बन गए और घोर तपस्या में लीन हो गए। उनकी इसी तपस्या रत छवि को श्रवणबेलगोला में स्थापित किया गया है जिसे
गोमतेश्वर नाम से जाना जाता है जिसका हर 12 साल बाद महा मस्तकाभिषेक होता है।
माना जाता है कि भरत के नाम से ही हमारे
देश का नाम भारत हुआ था।
ऋषभदेव की मृत्यु अट्ठावय पर्वत (कैलाश )पर हुई थी।
कुछ विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद में एक
स्थान पर ऋषभदेव का नाम मिलता है। यजुर्वेद में एक स्थान पर लिखा है ऋषभ धर्म प्रवर्त्तकों में सर्वश्रेष्ठ है। कुछ विद्वान अथर्ववेद और गोपथ
ब्राह्मण में उल्लेखित स्वयंभू कश्यप का समीकरण भी ऋषभदेव से करते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में उल्लेखित भगवान
ऋषभदेव प्रथम जैन तीर्थंकर ही है। वायु पुराण और भागवत पुराण में ऋषभ को नारायण का
अवतार कहा गया है.
24 तीर्थंकर
१.
ऋषभदेव 2.अजीतनाथ 3.संभवनाथ 4.अभिनंदन 5.सुमतिनाथ 6.पद्मप्रभु 7.सुपार्श्वनाथ
8.चंद्रप्रभ 9.सुविधिनाथ 10.शीतलनाथ 11.श्रेयांसनाथ 12.वासुपूज्य 13.विमलनाथ 14.अनंतनाथ
15.धर्मनाथ 16.शांतिनाथ 17.कुंथुनाथ 18.अरनाथ
19.मल्लीनाथ (मल्ली भगवती )20.मुनीसुव्रत 21.नेमिनाथ 22.अरिष्ठनेमिनाथ 23.पार्श्वनाथ
24.महावीर
कुछ विद्वानों के अनुसार यजुर्वेद में
स्थान पर दूसरे तीर्थंकर अजीतनाथ का नाम उल्लेख है। कुछ विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद
में 22 वे तीर्थंकर अरिष्ठनेमी का भी उल्लेख
है.
जैनों की श्वेतांबर परंपरा के अनुसार 19 वें तीर्थंकर
मल्लिनाथ स्त्री थे और वे मल्ली भगवती के नाम से भी जाने जाते हैं। दिगंबर परंपरा के
अनुसार वे पुरुष थे उनकी परंपरा में स्त्री मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती है।
23वें तीर्थंकर :पार्श्वनाथ
23
वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। वह ऐतिहासिक पुरुष थे। जैन साहित्य के अलावा ब्राह्मण साहित्य में भी इनका
वर्णन मिलता है। ब्राह्मण पौराणिक परंपरा में इन्हें भगवान के 24 अवतारों में स्थान दिया गया है। तुलसीदास
ने भी इनकी भगवान के रूप में वंदना की है।
पार्श्वनाथ बनारस (काशी) के राजा अश्वसेन
एवं रानी वामादेवी के पुत्र थे। उनके पिता इक्ष्वाकु वंश के थे और माता कौशलस्थल के
राजा नरवर्मन की पुत्री थी। पार्श्वनाथ का
विवाह कुशस्थल देश की राजकुमारी प्रभावती से हुआ था। उन्होंने 30 वर्ष की आयु में सिंहासन
का त्याग कर सन्यासी जीवन ग्रहण कर लिया था और 83 दिनों की तपस्या के बाद 84 वे दिन
उन्हें संमेय पर्वत पर केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। उनका महापरिनिर्वाण महावीर स्वामी
के लगभग 250 वर्ष पहले 100 वर्ष की आयु में हुआ था। वे 70 वर्षों तक धर्म का प्रचार करते रहे थे। पार्श्वनाथ
अपने पीछे शिष्यों की एक बड़ी संख्या छोड़ गए जो सफेद वस्त्र धारण करते थे और निर्ग्रन्थ कहलाते थे। पार्श्वनाथ के समय यह निर्ग्रन्थ संप्रदाय
भली-भांति संगठित हो गया था। उन्होंने चार गणों (संघों) की स्थापना की थी। प्रत्येक
गण एक गणधर के निरीक्षण में काम करता था।
महावीर स्वामी के माता-पिता भी पार्श्वनाथ
के अनुयाई थे। इससे स्पष्ट है कि महावीर स्वामी
से पूर्व जैन धर्म स्पष्ट रूप से स्थापित हो गया था।
बाद के समय में पार्श्वनाथ के शिष्य महावीर
स्वामी के अनुयाई बन गए थे। ऐसे अनुयायियों
में सबसे प्रमुख थे गांगेयअणगार जो महावीर
स्वामी के साथ वाद विवाद के बाद उनके शिष्य
बन गए थे। कालसवेसियपुत और पेढालपुत नामक पार्श्वनाथ
के अनुयाई भी महावीर के शिष्य बन गए थे।
पार्श्वनाथ ने अपने संप्रदाय में स्त्रियों
को भी दीक्षा प्रदान की थी। पुष्पचूला नामक
साध्वी भिक्षुणी संघ की प्रमुख थी।
ज्ञान प्रसार के दौरान पार्श्वनाथ राजगृह ,साकेत,
कौशांबी, हस्तिनापुर, श्रावस्ती आदि नगरों में गए थे।
पार्श्वनाथ पदार्थ की अनंतता पर विश्वास
करते थे और वैदिक कर्मकांडो तथा देव बाद के
कटु आलोचक थे। उन्होंने जाति प्रथा पर भी प्रहार किया था प्रत्येक व्यक्ति को वे मोक्ष
का अधिकारी मानते थे चाहे वह किसी भी जाति का हो। नारियों को भी उन्होंने अपने धर्म
में प्रवेश और समान दर्जा दिया था।
उनकी प्रमुख शिक्षाएं थी
1.अहिंसा :प्राणियों के प्रति हिंसा नहीं
करना
2.सत्य :सदा सत्य बोलना
3.अस्तेय :चोरी नहीं करना
4.अपरिग्रह :संपत्ति नहीं रखना
महावीर स्वामी :अंतिम तीर्थंकर
महावीर स्वामी इस धर्म के संस्थापक नहीं एक सुधारक
के रूप में थे। पार्श्वनाथ के समय तक जैन धर्म भली-भांति संगठित हो गया था। उसकी अपनी
व्यवस्था और भिक्षु -भिक्षुणियों के लिए विधि
निषेध थे और जैन धर्म के आधार पर जीवन यापन की एक निश्चित प्रणाली आविर्भूत हो चुकी थी.
महावीर का जन्म वैशाली (जिला मुजफ्फरपुर ,बिहार)
के पास कुंडलग्राम (बासुकुंड) में लगभग 540 ईसा पूर्व में (चेत्र शुक्ला तेरस )को हुआ
था। कुंडल ग्राम उत्तरी बिहार के वज्जिसंघ
में सम्मिलित 8 गण राज्यों में से एक था। वज्जि संघ की राजधानी वैशाली थी। उनके पिता
सिद्धार्थ ज्ञातृक क्षत्रिय गण के शासक थे और उनकी माता त्रिशला लिच्छवि गणराज्य के
प्रमुख चेटक की बहन थी। चेटक उस समय का प्रसिद्ध
शासक था। इसकी एक पुत्री चेलना मगध नरेश बिम्बिसार
की पत्नी और अजातशत्रु की माता थी। महावीर
स्वामी के पिता सिद्धार्थ का श्रेयांश और यमास्स
नाम से भी उल्लेख मिलता है ,जबकि उनकी माता को प्रियकारिणी और विदेहदत्ता भी
कहा गया है। महावीर अपने माता-पिता की तीन
संतानों (2 पुत्र व एक पुत्री) में से सबसे छोटे थे। उनका बचपन का नाम वर्द्धमान था। बड़े भाई का नाम नंदीवर्धन था और बहन का नाम
सुदर्शना था।
जैन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि महावीर
स्वामी पहले ब्राह्मण ऋषभदत्त की पत्नी देवानंदा
के गर्भ में आए ,परंतु देवताओं को यह अभीष्ट न था (अभी तक सभी तीर्थंकर क्षत्रिय
ही हुए थे) कि जैन तीर्थंकर ब्राह्मण के घर उत्पन्न हो। अतः इंद्र ने महावीर स्वामी को ब्राह्मणी देवानंदा
के गर्भ से हटवा कर त्रिशला के गर्भ में स्थानांतरित
करवा दिया।
प्रारंभ में वर्द्धमान का जीवन राजकीय समृद्धि के बीच बीता और उन्हें सभी प्रकार की राज्योचित
विद्या दी गई थी। युवा होने पर उनका विवाह
कुन्डिन्य गोत्र की कन्या यशोदा से कर दिया
गया जिससे अणोज्जा (प्रियदर्शना) नाम की पुत्री पैदा हुई। प्रियदर्शना का विवाह बाद में जमाली नामक क्षत्रिय
से हुआ था जो कालांतर में महावीर का शिष्य बन गया था।
जब वर्द्धमान 30 वर्ष के हुए तो उनके पिता की मृत्यु हो गई। तब
वर्द्धमान के बड़े भाई राजा बने और 30 वर्ष की आयु में भाई से आज्ञा लेकर वर्द्धमान
ने दीक्षा ग्रहण कर ली।
दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात उन्होंने
घोर तपस्या प्रारंभ कर दी जिसका कल्पसूत्र में विस्तार से वर्णन मिलता है। इसके अनुसार
भिक्षु महावीर ने 13 माह तक वस्त्र धारण किए परंतु इसके बाद में पूर्ण रूप से नग्न
रहने लगे। आचारांग सूत्र के अनुसार वस्त्र झीर्ण शीर्ण होकर गिर गए और 12 वर्ष तक अपने शरीर की पूर्णता
उपेक्षा कर सब प्रकार के कष्ट सहने लगे।
आचारांग के अनुसार उनके शरीर पर अनेक कीटाणु -कीट चढ़ने
लगे और काटने लगे। उन्हें लोगों और लड़कों के अत्याचारों और शरारतो का भी सामना करना पड़ा। बहुत से दुष्ट उन्हें डंडों से पीटते थे। उनके कानों में
एक बार तो कीलें ठोक दी गई थी।
लेकिन इस प्रकार के अनेक कष्टों को सहते हुए 12 वर्ष
की कठोर तपस्या के बाद जम्भ्भियग्राम (जुम्बिका )के समीप उज्जुवालिया (ऋजुपालिका )नदी
के तट पर साल वृक्ष के नीचे महावीर को केवल ज्ञान (सर्वोच्च ज्ञान) की प्राप्ति हो
गई। वह केवली (केवलिन ) हो गए। उन्होंने इंद्रियों को जीत लिया इसलिए जिन कहलाए। तपस्या
में अतुल्य पराक्रम दिखाने के कारण महावीर
कहलाए।
बौद्ध साहित्य में उन्हें निगंठनाथपुत्र
कहा गया है। निर्ग्रन्थ इसलिए कि उन्होंने
सारी ग्रंथियों (बंधनों )को तोड़ दिया था और ज्ञातपुत्र इसलिए कि वे ज्ञातृक राजा के पुत्र थे। उन्हें अरिहंत (कर्म रूपी शत्रुओं
का नाश करने वाला )और अर्हन्त (पूजनीय) भी
कहा गया।
जिनेंद्र जैन तीर्थंकरों को कहा जाता है जिसका अर्थ
है इंद्रियों को जीतने वाला। ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर अपने विचारों के प्रचार
के लिए बरसात के काल को छोड़कर हमेशा भ्रमण करते रहे।
ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने अपना
पहला उपदेश राजगृह के निकट विपुलाचल पहाड़ी
पर दिया था। वह एक गांव में 1 दिन और एक नगर में 5 दिन से ज्यादा नहीं ठहरते थे।
अनेक राजवंशों से संबंध होने के कारण
महावीर के विचार आसानी से कई जगह प्रसारित हो गए। महावीर की माता लिच्छवि नरेश चेटक
की बहन थी जिसकी 5 पुत्रियां अलग-अलग राजवंशों
में ब्याही थी:
1. छेलना का विवाह मगध नरेश बिंबिसार(श्रेणिक
) से हुआ था।
2. प्रभावती का विवाह सिंधु सौवीर के राजा उदयन से हुआ था .
3. मृगावती का विवाह कौशांबी नरेश स्तानिक से हुआ था
4. शिवा का विवाह अवंती नरेश प्रद्योत के साथ और
5. पद्मावती का विवाह चंपा नरेश दधिवाहन
से हुआ था .
जैन साहित्य में इन रानियों और राजाओं
के जैन धर्म अनुयाई होने का उल्लेख मिलता है।
आवश्यक चूर्णी से चेटक तथा अवन्ति नरेश
प्रद्योत एवं उसकी आंठ रानियों की जैन धर्म
के प्रति आस्था स्पष्ट होती हैं।
उत्तराध्ययन सूत्र श्रेणिक और अंतगडदशा सूत्र उसकी 10 रानियों की जैन धर्म
में आस्था स्पष्ट करता है।
चंपा नरेश दधिवाहन महावीर स्वामी में
प्रबुद्ध श्रद्धा रखता था। उसकी पुत्री चंदना महावीर स्वामी की प्रथम साध्वी थी। गणराज्यो में वैशाली में महावीर का प्रभाव अत्यधिक था यहां
उन्होंने अपने भ्रमण काल के 12 वर्ष बिताए थे। महावीर का ज्ञातृक राज्य वज्जि संघ के
अंतर्गत ही था अतः इस संघ की उनके प्रति आस्था
स्वाभाविक थी।
मल्ल राजा सास्तिपाल भी उनका बड़ा आदर
करता था। उसी के भवन में महावीर स्वामी की मृत्यु हुई थी।
अपने धर्म का प्रचार करते हुए 468 ईसा
पूर्व में 72 वर्ष की आयु में पावापुरी में उनका निर्वाण हो गया था।
आनंद, कामदेव, सूरदेव,शकडालपुत्र ,महासयग,सल्हीपिया
एवं कुंडकोलिय नामक व्यक्तियों ने भी महावीर
के उपदेशों के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
महावीर के जीवन काल में चंपा जैन धर्म
का प्रमुख केंद्र बन गया था यद्यपि महावीर के जीवन काल में जैन धर्म मगध और अंग जनपदों तक ही विशेष रूप से फैल सका था ,परंतु महावीर
के बाद उनके अनुयायियों ने इसे भारत के अन्य भागों में भी प्रसारित किया। संभवत कुछ
धर्मावलंबियों ने कालांतर में विदेशों में भी इसे प्रसारित करने का प्रयास किया परंतु
यह प्रचार नगण्य ही रहा।
सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र और पुत्री
संघमित्रा जब बौद्ध धर्म के प्रचार के निमित्त श्री लंका गए थे तो उन्होंने वहां पहले
से स्थापित निरंतर संघ को पाया था। महावंश
के अनुसार सिंहली नरेश ने प्राचीन नगर अनुराधपुर में निर्ग्रन्थों के लिए आश्रम बनवाए थे।
महावीर के मामा चेटक ,चेटक का दामाद
,अवंतिराज प्रद्यौत अपनी 8 रानियों सहित, बिंबिसार अपनी 10 रानियों सहित एवं अजातशत्रु
महावीर के अनुयाई बने, ऐसे उल्लेख साहित्य में प्राप्त होते हैं।
चंद्रगुप्त मौर्य ने भी अपने अंतिम काल
मैं जैन धर्म को अपनाया था। अशोक का पौत्र संप्रति भी जैन धर्म का अनुयाई था। मौर्योत्तर
काल में कलिंग का शासक खारवेल भी जैन धर्म का अनुयाई था।
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक उत्तर भारत
में मथुरा, मगध, गुजरात, मालवा और दक्षिणी भारत में आंध्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में
जैन धर्म प्रचारित हो गया था।
12 वीं सदी में गुजरात के शासक कुमारपाल और जयसिंह सिद्धराज ने इसे संरक्षण प्रदान किया था.
पार्श्वनाथ
और महावीर की शिक्षाओं में अंतर
पार्श्वनाथ ने अहिंसा ,सत्य, अस्तेय तथा
बहिद्धाणओ वेरमणं (अपरिग्रह) के चतुर्याम धर्म
की व्यवस्था दी थी, महावीर ने इसमें पंचम ब्रह्मचर्य
व्रत की वृद्धि की थी। कुछ विद्वानों के अनुसार
पार्श्वनाथ वस्त्र धारण करने के विरुद्ध नहीं थे लेकिन महावीर स्वामी ने सांसारिकता
से पूर्ण रुप से अनासक्ति के लिए नग्नता को आवश्यक माना। नग्नता से काया क्लेश और अपरिग्रह
को प्रोत्साहन मिलता है। जैन धर्म के प्रमुख
दार्शनिक सिद्धांत
ईश्वर और सृष्टि के बारे में जैन धर्म
:
जैन दर्शन में ईश्वर को मान्यता नहीं
है इसलिए जैन धर्म को अनीश्वरवादी या नास्तिक
संप्रदाय कहा जाता है। संसार के बारे में जैन धर्म का मानना है कि संसार वास्तविक है
(शाश्वत सत्य) है परंतु उसकी सृष्टि का कारण ईश्वर नहीं है। यह संसार अनादि काल से
विद्यमान है और इसका अस्तित्व शाश्वत है और
इसका कभी मूलत: विनाश नहीं होता है। जो कुछ भी यहां विनाश को प्राप्त होता दिखाई देता
है वह मूलत विनाश नहीं है।
पदार्थों का विनाश नहीं होता जिसे सामान्य
जन विनाश कहते हैं वह एकमात्र परिवर्तन है।
जैन दर्शन के अनुसार यह संसार छह द्रव्यों
का समुच्चय हैं। जीव ,अजीव(पुद्गल), धर्म
,अधर्म आकाश और काल यह छह द्रव्य शाश्वत और अनश्वर हैं इनसे निर्मित संसार भी मूलतः
शाश्वत नित्य और अनश्वर है।
निर्वाण
की अवधारणा
यह अवधारणा मानव गरिमा का उत्थान करने
वाली है। जैन सिद्धांतों के अनुसार प्रत्येक
जीव में दो तत्व विद्यमान होते हैं एक आत्मा और दूसरा उसे घेरने वाला भौतिक पदार्थ
(कर्म) .
जीव का चरम लक्ष्य आत्मा को इस भौतिक तत्व से मुक्त
करवाना है जो कि सत्य ज्ञान को अवरुद्ध कर जीवन में विकार और भ्रम उत्पन्न करता है।
आत्मा से इस भौतिक तत्व के अलग होने पर
ही निर्वाण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है और
यह भौतिक अंश जब तक नष्ट नहीं हो सकता जब तक मनुष्य कर्म फल से मुक्त नहीं होता है।
आठ प्रकार के कर्म बंधनों
से मुक्ति प्राप्त कर व्यक्ति निर्वाण (मोक्ष )की प्राप्ति कर सकता है। निर्वाण प्राप्त
करने वाली आत्मा जन्म ,जरा ,मरण के चक्र से मुक्त होकर अनंत शाश्वत सुखों की प्राप्ति
करती है। मोक्ष की प्राप्ति पर आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत बलवीर्य तथा अनंत
सुख की प्राप्ति करती है जिसे अनंत चातुष्टय कहा गया है।
बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों में ही
मोक्ष जीवन का चरम लक्ष्य है।
कर्म सिद्धांत और पुनर्जन्म:
जैन धर्म ने मनुष्य को ईश्वरीय हस्तक्षेप
से मुक्त करके स्वयं अपना भाग्य विधाता माना है। उसके सारे सुख और दुखों की प्राप्ति
उसके द्वारा किए हुए कर्मों के आधार पर ही होती हैं। व्यक्ति भले ही अपने दूसरे कौटुंबिक
जनों के लिए कोई कर्म करें (बुरे कर्म करें) उसका फल उसे ही भुगतना पड़ता है और जब
तक इनको भुगता नहीं जाता वह आत्मा के साथ लगे
रहते हैं और इन बंधे हुए कर्मों के कारण उसे संसार का परिभ्रमण करना पड़ता है। बार-बार
पुनर्जन्म लेना पड़ता है।
जिन कर्मों से बंधा हुआ व्यक्ति संसार
परिभ्रमण करता है उनकी संख्या आठ हैं। ये है :
1. ज्ञानावरणीय कर्म :आत्मा के ज्ञान को ढकने वाला
2. दर्शनावरणीय कर्म :आत्मा की सम्यक दर्शन की शक्ति को रोकने वाला
3. वेदनीय कर्म: सुख-दु:ख का कारण बनने वाला कर्म
4. मोहनीय कर्म: जीव को मोह में डालने वाला अर्थात सत और असत का भान बुलाने
वाला कर्म
5. आयुष्य कर्म: जो कर्म मनुष्य की आयु
को निर्धारित करें
6. नाम कर्म :वह कर्म जो मनुष्य की गति
,शरीर परिस्थिति आदि निर्धारित करें
7. गोत्र कर्म :जो मनुष्य के गोत्र (ऊंचे
और नीचे स्तरों )को निर्धारित करें
8. अंतराय कर्म : जो कर्म दान ,लाभ ,भोग
,उपभोग और वीर्य में बाधा डाले
ये
कर्म ही पुनर्जन्म के कारण है। मोक्ष
की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य सबसे पहले 'आस्रव '(अर्थात नवीन कर्म बंधन
की क्रिया ) को रोके और यह कार्य 'संवर' (नवीन कर्म बंधन को रोकना )के माध्यम से किया
जा सकता है। इसके साथ ही साथ वह पूर्व में संचित कर्मों की 'निर्जरा' (तप - तपस्या
के द्वारा कर्मों को निर्जरित करना )द्वारा कर्म फल का नाश करें।
अनेकात्मवाद
:
जैन धर्म आत्मैक्य के सिद्धांत में विश्वास नहीं करता। उसके अनुसार
यदि सभी जीवो में एक ही आत्मा होती तो वे एक दूसरे से पृथक रूप से नहीं पहचाने जाते
उनकी पृथक गतिविधियां न होती और न ही कीड़े मकोड़े सर्प आदि होते सभी मनुष्य या देवता
होते। लेकिन ऐसा नहीं होता क्योंकि सभी जीव भिन्न भिन्न हैं और उन सब में भिन्न आत्मा का वास है।
ज्ञान
का सिद्धांत
जैन सिद्धांत के अनुसार जीव की आत्मा
में पूर्ण ज्ञान रहता है परंतु भौतिक तत्व के आवरण के कारण उसका प्रकाश नहीं हो पाता
,जैसे मेघों के आवरण के कारण सूर्य का प्रकाश नहीं हो पाता। जिस समय जीव भौतिक तत्व
'कर्म' का नाश कर डालता है उस समय वह विशुद्ध
हो जाता है और उसे आत्मा में निहित पूर्ण ज्ञान (सर्वोच्च ज्ञान/ केवल ज्ञान)
का साक्षात्कार हो जाता है और वह विमुक्त ,निर्गन्थ हो जाता है।
जैन धर्म में ज्ञान के पांच प्रकार बताए
गए हैं :
1. मति ज्ञान : यह सामान्य ज्ञान है जो
इंद्रियों द्वारा होता है,जैसे नाक द्वारा गंध का ज्ञान।
2. श्रुत ज्ञान :वह ज्ञान जो सुनकर या
वर्णन द्वारा प्राप्त होता है।
3. अवधि ज्ञान: यह एक दिव्य ज्ञान है
, जिससे युक्त मनुष्य किसी भी काल की किसी भी वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
4. मनः पर्यव ज्ञान : इस ज्ञान के धारी व्यक्ति अन्य व्यक्ति के मन: मस्तिष्क
के भावों को जान सकते है।
5. केवल ज्ञान :सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण
ज्ञान को केवल ज्ञान या केवल्य ज्ञान कहा जाता है जो निर्ग्रंथो और जिनेंद्रियों को ही प्राप्त होता है।
केवल ज्ञान अथवा
मोक्ष जैन धर्म का चरम
लक्ष्य मोक्ष अथवा केवल ज्ञान अथवा निर्माण प्राप्ति है। पूर्व संचित कर्म फलों का
विनाश एवं इस जन्म के कर्म फलों से मुक्ति ही निर्माण हैं। केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी व्यक्ति जीवित रहता
है। |
अनेकांतवाद (स्यादवाद /सप्तभंगी )
यह ज्ञान संबंधी एक विशिष्ट सिद्धांत है। इसके अनुसार
भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से देखे जाने के कारण हर ज्ञान सात विभिन्न स्वरूपों में व्यक्त किया जा सकता है :
1. है
2. नहीं है
३. है और नहीं है
4. कहा नहीं जा सकता
5. है किंतु कहा नहीं जा सकता
६. नहीं है और कहा नहीं जा सकता
7. है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता
जैन धर्म में इसे स्यादवाद/अनेकांतवाद
अथवा सप्तभंगी का सिद्धांत कहा गया है। इसी
सिद्धांत के आधार पर जैन धर्म ने वेदवाद अर्थात वेद ही सत्य है का खंडन किया था। शंकर
और रामानुजाचार्य ने कालांतर में इस सिद्धांत का घोर विरोध किया था उनके अनुसार भाव
और अभाव परस्पर विरोधी है और वे एक साथ संभव नहीं है। अर्थात यह संभव नहीं है कि किसी
एक ही समय में कोई वस्तु हो और नहीं हो परंतु जैन मत के अनुसार ऐसा संभव है। उनके अनुसार
परस्पर विरोधी जटिलता अथवा भिन्न दृष्टिकोण
के कारण ऐसा संभव है। उदाहरणार्थ यह कहा जा सकता है कि वृक्ष हिलता है क्योंकि उसकी
पत्तियां व शाखाएं हिलती है इसके साथ यह भी कहा जा सकता है कि वह नहीं हिलता क्योंकि
वह एक स्थान पर दृढ़ता पूर्वक खड़ा है।
इसे एक हाथी और सांत अंधों के दृष्टांत से भी समझाया जाता है जिसमें
हर एक अंधा हाथी के अलग-अलग भाग को स्पर्श कर हाथी की व्याख्या करता है हालांकि वे गलत नहीं है लेकिन वह एक सापेक्षिक दृष्टि से सत्य
है कि हाथी ऐसा है। यह सापेक्ष वाद पर आधारित ज्ञान का सिद्धांत है।
जैन दर्शन में ज्ञान के तीन स्त्रोत बताए
गए हैं प्रत्यक्ष, अनुमान और तीर्थंकरों के वचन।
जैन दर्शन धर्म के आचरण के संबंधी प्रमुख
सिद्धांत और विशेषताएं
निवृत्ति मार्ग का अनुसरण
बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों ही वैदिक
धर्म के विपरीत निवृत्ति मार्गी धर्म है। जैन धर्म में संसार को दु:ख मूलक माना गया है जिसमें व्यक्ति काम भोगों तथा तृष्णा में फंसकर अनंत दुखों की प्राप्ति करता
है।
संसार त्याग और सन्यास ही व्यक्ति को सच्चे सुख की ओर ले जा सकता है। जैन
धर्म के अनुसार व्यक्ति को संपत्ति ,परिवार, परिग्रह आदि सब कुछ छोड़कर भिक्षु बन कर
मोक्ष प्राप्ति हेतु अपने कर्मो की निर्जरा
करनी चाहिए।
त्रिरत्नों की अनुपालना
पूर्व जन्मों के कर्म फल को नष्ट करने
तथा इस जन्म में कर्म बंधन से बचने के लिए
जैन धर्म त्रिरत्नों की पालना का आदेश देता है। यह है :सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और
सम्यक चरित्र(आचरण ).
सम्यक ज्ञान :
सत-असत का भेद समझ लेना ही सम्यक ज्ञान
है। शंका विहीन तथा वास्तविक ज्ञान अर्थात जैन धर्म और उसके सिद्धांतों का ज्ञान ही
सम्यक ज्ञान है।
जैन श्रावको को नौ तत्वों का ज्ञान हो
ऐसी अपेक्षा की गई है। यह 9 तत्व है :जीव, अजीव,पाप (18 प्रकार के पाप), पुण्य ,आस्रव
, संवर, निर्जरा बंध और मोक्ष।
सम्यक दर्शन:
सत में श्रद्धा या विश्वास ही सम्यक दर्शन है। जैन
धर्म में संदेह से दूर रहना, दूसरे मतों से विचलित नहीं होना, सही विचार पर अटल रहना
और जैन सिद्धांतों को सर्वश्रेष्ठ समझना ,पाखंडियों और अंधविश्वासों से दूर रहना सम्यक दर्शन की मुख्य बातें हैं।
सम्यक चरित्र :
जो कुछ भी सही जाना जा चुका है ,सही माना
जा चुका है उसी के अनुरूप चलना और सुख दु:ख में समभाव से रहना। यही सम्यक चारित्र है।
इन तीन रत्नों का अनुसरण करने से कर्मों का जीव की
ओर बहाव रुक जाता है जिसे संवर कहते हैं।
इन तीन रत्नों के अनुशीलन में आचरण पर
अत्यधिक बल दिया गया है और इसी संबंध में साधुओं हेतु 5 महाव्रतों की तथा श्रावकों हेतु 12 व्रतों की पालना का विधान किया गया है।
पंच महाव्रत
जैन धर्म में भिक्षु वर्ग के लिए निम्नलिखित
पांच महाव्रतों की व्यवस्था की गई है :
1. अहिंसा महाव्रत: जानबूझकर या अनजाने
में भी किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करना। इसका सम्यक रूप से पालन करने के लिए निम्नलिखित
उप नियमों की व्यवस्था की गई है
(i )ईर्या समिति : आवागमन करते समय सूक्ष्म जीवों का ध्यान रखना
(ii )भाषा समिति: बोलने में किसी भी प्रकार
की हिंसा न हो यह ध्यान रखना
(iii ) एषणा समिति: भोजन द्वारा किसी
भी प्रकार की जीव हिंसा न हो
(iv) आदान-भांड- निक्षेपणा समिति :अपने
भांड ( बर्तन), उपकरणों का प्रयोग करते समय जीव हिंसा न हो इसका ध्यान रखना।
(v )व्युत्सर्ग : मल मूत्र का त्याग करते
समय जीव हिंसा न हो इसका ध्यान रखना।
2. सत्य महाव्रत:
भाषण सदा सत्य और मधुर हो इस बात का ध्यान रखना।
इस हेतु पांच बातों का ध्यान रखने का विधान है:
(i ) बिना सोचे समझे नहीं बोलना
(ii )क्रोध आने पर मौन रहना
(iii )लोभ की भावना जागृत होने पर मौन
रहना
(iv )भय होने पर भी असत्य नहीं बोलना
(v )हंसी- मजाक
में भी असत्य नहीं बोलना।
3. अस्तेय :
अनुमति के बिना किसी की वस्तु ग्रहण नहीं
करना और ऐसा करने की इच्छा भी नहीं रखना। इस संबंध में भी कुछ नियम थे
(i )बिना अनुमति किसी के घर में निवास
नहीं करना
(ii )किसी के घर में रहते समय बिना गृहस्वामी
की आज्ञा के उसकी वस्तु का प्रयोग नहीं करना
(iii )गुरु की आज्ञा के बिना भिक्षा अर्जित
भोजन ग्रहण नहीं करना
(iv ) बिना आज्ञा किसी के घर के भीतर
नहीं जाना
(v )यदि कोई भिक्षु समाज के किसी घर में निवास कर रहा है तो उसके लिए
समाज के किसी सदस्य की अनुमति लेना।
4.
ब्रह्मचर्य महाव्रत :
भिक्षु हेतु पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक है इस
हेतु उसे कुछ बातें ध्यान में रखनी होता है
(नव वाड का पालन करना ):
(i )अकेले में किसी नारी से बात नहीं
करना
(ii )किसी भी नारी को घूर कर नहीं देखना
(iii )नारी संसर्ग का ध्यान भी नहीं करना
(iv ) सादा और अल्प भोजन करना
(v )जिस घर में नारी रहती हो या जिस घर
में नारी के रोने गाने की आवाज आती हो उस घर में निवास नहीं करना।
5. अपरिग्रह महाव्रत :भिक्षुओं के लिए
किसी भी प्रकार की संग्रह की प्रवृत्ति वर्जित है। यहां तक कि भोजन पानी का भी संग्रह
वर्जित है। संग्रह से आसक्ति की भावना बढ़ती
है। धन-धान्य ,अनुमत माप से अधिक वस्त्र ,आभूषण और सभी प्रकार की धातुओं का त्याग आवश्यक
है।
श्रावकों के लिए 12 व्रत :
जैन गृहस्थों के लिए पांच अणुव्रतो , 3 गुणव्रतों और चार शिक्षा व्रतों इन 12 व्रतों का प्रतिपादन किया गया है।
पांच अणुव्रत:
जैन गृहस्थों
के लिए भी साधुओं के लिए बताए गए पांच
महाव्रतो के समान पांच व्रतों का प्रतिपादन किया गया है परंतु यह समझ कर कि भिक्षुओं
की भांति गृहस्थ अति कठोर व्रतों का पालन नहीं कर पाएंगे गृहस्थो के लिए इन व्रतों की कठोरता कम कर दी गई है। इसलिए
इन्हें अणुव्रत कहा गया। यह है:
(i ) अहिंसा (ii )सत्य (iii )अस्तेय
(iv )ब्रह्मचर्य (v )अपरिग्रह
3 गुणव्रत:
वे
व्रत जो अणुव्रत को गुण अर्थात लाभ पहुंचाते हैं उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। जैनों हेतु 3 गुण व्रतों के पालन का उपदेश दिया
गया है। ये है :
(i ) दिशा परिमाण व्रत : प्रत्येक दिशा
में भ्रमण की निश्चित दूरी का निर्धारण करना।
(ii )उपभोग परिभोग परिमाण व्रत :वस्तुओं
का उपयोग करते समय संयम बरतना और भोजन तथा उपभोग की मात्रा का निर्धारण करना।
(iii )अनर्थ दंड विरमण व्रत :पाप बढ़ाने
वाले निरर्थक कार्यों का निषेध।
शिक्षाव्रत
कर्म क्षय की शिक्षा देने वाले व्रतों को या मोक्ष प्राप्ति
के लिए अभ्यास कराने वाली क्रियाओं की शिक्षा देने वाले व्रतों को शिक्षा व्रत कहते
हैं। यह चार प्रकार के हैं:
(i )सामायिक व्रत: पापों से एवं सांसारिक
भावना और कार्यों से मुक्त होकर धार्मिक चिंतन करना।
(ii ) देशावकाशिक व्रत: समय के अनुकूल
भ्रमण की दूरी को और कम करना
(iii )पौषध : माह के कुछ विशेष दिनों
में उपवास सहित पौषध करना(साधु की भांति रहना
)
(iv )अतिथि संविभाग व्रत: अतिथि (साधु-
साध्वियों ) को अच्छे मन से भोजन आदि देना और ऐसा करने की भावना रखना।
18 पापों का निषेध
जैन धर्म में 18 प्रकार के पापों से बचने
की शिक्षा दी गई है। आवश्यक सूत्र में उनके नाम इस प्रकार से मिलते हैं :
1.प्राणातिपात (हिंसा) 2. मृषावाद (झूठ)
3.अदत्तादान(चोरी) 4.मैथुन 5.परिग्रह 6.क्रोध 7. मान 8.माया 9. लोभ 10.राग 11.द्वेष 12.कलह 13.अभ्याख्यान : दोषारोपण करना 14.पैशुन्य : चुगली
करना 15.परपरिवाद :निंदा करना 16.रति - अरति
17.माया मृषा वाद (कपट पूर्ण मिथ्या आचरण )18.मिथ्यादर्शन रूपी शल्य।
ब्राह्मण
धर्म का और ब्राह्मण व्यवस्था का विरोध
जैन धर्म ने सैद्धांतिक दृष्टि से ब्राह्मण धर्म के वेदवाद , यज्ञवाद और जातिवाद का विरोध किया है। सप्तभंगी सिद्धांत
/अनेकांतवाद और अहिंसा में आस्था के कारण क्रमशः वेद बाद और यज्ञ बाद का विरोध स्वाभाविक
ही था।
इसके अलावा जैन धर्म में जाति अभिमान
को 18 पापों में से एक पाप बताया था अतः स्वाभाविक
था कि जैन धर्म जाति प्रथा का भी विरोध करता।
इस धर्म के अनुसार निर्वाण पुरुषार्थ
द्वारा प्राप्त किए हैं और पुरुषार्थ कोई भी व्यक्ति कर सकता है अतः निर्वाण का मार्ग सबके लिए खुला है उसमें कोई जाति भेद नहीं
है।
नारी गरिमा एवं स्वतंत्रता में विश्वास
महावीर नारी स्वतंत्रता के समर्थक थे उन्होंने अपने
संघ के द्वार नारियों के लिए खोल दिए थे। संघ के 4 अंगों में से दो साध्वी और श्राविका
का इसी वर्ग से होना इस बात का साक्षी है। मल्ली भगवती को तीर्थंकर पद की प्राप्ति
भी स्त्री गरिमा में विश्वास का प्रतीक है।
धर्म के 10 लक्षण :
जैन धर्म के अंतर्गत धर्म के 10 लक्षणों
को भी विस्तार से विवेचित किया गया है। यह 10 लक्षण इस प्रकार हैं :
1. उत्तम क्षमा :क्षमा भाव रखना और खुद
के पापों हेतु क्षमा याचना करना
2.उत्तम मार्दव :गर्व का अंत
3.उत्तम शौच : अंतः शुद्धि
4. उत्तम सत्य
5.उत्तम अकिंचन (त्रिरत्न)
6.उत्तम मार्जव (सादगी )
7.उत्तम तप
8.उत्तम संयम
9.उत्तम ब्रह्मचर्य
10. उत्तम त्याग
सल्लेखना /संथारा
जैन धर्म में मृत्यु के अंतिम समय में
शुद्ध भावों के साथ मरण को अत्यंत महत्व दिया गया है इसके लिए सल्लेखना संथारा के साथ
मृत्यु की तरफ बढ़ने की विधि बताई गई है। जैन धर्म में बताया गया है कि कोई घोर उपसर्ग
आ जाए, दुर्भिक्ष हो जाए अथवा वृद्धावस्था और असाध्य रोग आ जाए जिनका प्रतिकार करना
संभव नहीं है उस स्थिति में व्यक्ति को संसार के प्रति अपने सारे ममत्व और अधिकारों
को त्याग कर और चारों प्रकार के आहार का त्याग करते हुए मृत्यु की चाह किए बिना अंतिम
समय को सुधारना चाहिए।
इस प्रकार के मरण को निष्प्रतिकार मरण भी कहा गया है। ई. पू. तीसरी
शताब्दी में चंद्रगुप्त मौर्य ने श्रवणबेलगोला
में संलेखना विधि के द्वारा ही अपने
प्राण त्यागे थे। इस प्रकार के मरण को पंडित
मरण भी कहा गया है।
आरंभ में जैन धर्म में मूर्ति पूजा का
कोई स्थान नहीं था परंतु कालांतर में तीर्थंकरों की मूर्तियों का निर्माण और पूजा होने
लगी।
जैन संघ
जम्भिय गांव में ज्ञान प्राप्त करने के बाद महावीर
पावापुरी आए। इस समय उस नगरी में ब्राह्मणों का एक महायज्ञ हो रहा था। महावीर स्वामी
के आगमन पर इंद्रभूति आदि 11 याज्ञिक ब्राह्मण
उनसे वाद-विवाद करने आए और महावीर ने एक-एक करके उन सभी को परास्त कर दिया तब यह
11 ही ब्राह्मण अपने शिष्यों सहित जैन धर्म
में दीक्षित हो गए। यही महावीर के प्रथम अनुयायी
थे। यह गणधर कहलाए।
महावीर ने अपने समस्त साधुओ को एकत्र करके 11 समूहों में बांट दिया जो गण कहलाए। 11 गणधरों में से प्रत्येक एक एक गण का अध्यक्ष नियुक्त किया गया इसलिए यह गणधर कहलाए। इस प्रकार जैन धर्म के प्रारंभिक संगठन और प्रचार
कार्य में ब्राह्मणो ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
जैन भिक्षुणियों की व्यवस्था का कार्य प्रथम जैन भिक्षुणी चंदना
को सुपुर्द किया गया। महावीर ने पावापुरी में ही साधु साध्वी और श्रावक तथा श्राविकाओ
के चतुर्विध संघ की स्थापना की। इनमें से प्रथम
दो संसार त्यागी थे और अंतिम दो गृहस्थ।
उन्होंने अपने संघ के द्वार सभी जाति
के व्यक्तियों- स्त्रियों के लिए खुले रखे थे।
जैन धर्म का विकास:
जमालि प्रथम
संघ विच्छेदक :
जमालि कुंडग्राम का क्षत्रिय था। यह महावीर की बड़ी बहन सुदर्शना का पुत्र था और
महावीर की पुत्री प्रियदर्शना का पति था। वह महावीर के सानिध्य में दीक्षित हो गया
था लेकिन महावीर के कैवल्य प्राप्ति के 12 वर्ष बाद उसका महावीर स्वामी के साथ 'क्रियमाणकृत
' सिद्धांत पर मतभेद हो गया।
महावीर स्वामी का मत था कि कार्य प्रारंभ
होते ही समाप्त हो जाता है। उदाहरण के लिए
कोई व्यक्ति चोरी की भावना से किसी के घर में प्रविष्ट हुआ परंतु उस घर के लोग जाग
रहे थे और वह चोरी नहीं कर पाया। लेकिन चोरी की उसकी भावना उदय हो गई थी अतः वह चोर
हो गया। परंतु जमाली का मत था कि कार्य की समाप्ति पर ही कार्य संपादित समझा जाना चाहिए
और उपयुक्त प्रकार का मनुष्य चोर नहीं है। जमाली को यह विचार उस समय आया था जब उसने अपने शिष्यों को बिस्तर बिछाने के लिए कहा था और
जब उसने वापस पूछा कि बिस्तर बिछा दिया गया है क्या ?तो शिष्यों ने कहा था नहीं बिस्तर
अभी बिछना बाकी है। तब जमाली ने यह मत बना लिया की कार्य समाप्त होने पर ही पूरा समझा
जाना चाहिए। इस प्रकार के विचारों के साथ जमाली संघ से अलग हो गया और क्रियमाणकृतवाद के स्थान पर 'बहुरतवाद' (बहु का
अर्थ समाप्त और रत का अर्थ है नाम ).
जमाली की पत्नि भी 1000 भिक्षुणियों के साथ इसीलिए महावीर के संघ से अलग हो गई परंतु कालांतर में वह समस्त शिष्याओं
के साथ संघ में वापस आ गई।
इस प्रकार महावीर के जीवन काल में ही
प्रथम संधि विच्छेद हो गया। लेकिन इससे महावीर के संघ पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।
महावीर स्वामी के 11 गणधरों में से अकेला सुधर्मा स्वामी(सुधर्मन /सुधर्मा
) ही महावीर की मृत्यु के बाद भी जीवित थे।
वह जैन धर्म के प्रथम थेर /थेरा (आचार्य
या मुख्य उपदेशक) हुआ। उनकी मृत्यु महावीर
की मृत्यु के 20 साल बाद हुई। सुधर्मा स्वामी
के बाद जंबू स्वामी 44 वर्षों तक जैन संघ के अध्यक्ष आचार्य रहे। इनके बाद
नंद वंश के काल में जैन धर्म के संचालन
का कार्य दो आचार्यों संभूति विजय और भद्रबाहु द्वारा किया जा रहा था। यह
दोनों आचार्य महावीर द्वारा बताये 14 पूर्वो
के विषय में जानने वाले अंतिम व्यक्ति थे।
संभूति विजय की मृत्यु चंद्रगुप्त मौर्य
के राज्यारोहण के समय हुई। उनके शिष्य स्थूलभद्र हुए। चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल
की समाप्ति के समय मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा। फलत: भद्रबाहु अपने शिष्यों सहित कर्नाटक राज्य में श्रवणबेलगोला
की ओर चले गए।
कुछ अन्य जैन मुनि स्थूलभद्र /स्थूलबाहुभद्र
के नेतृत्व में मगध में ही रह गए। उन्होंने पाटलिपुत्र में 300 ई. पू. के आसपास प्रथम
जैन सभा का आयोजन किया। इस सभा में महावीर
की शिक्षाओं को 12 अंगो में विभाजित किया और
उनका संकलन किया गया। यह मगध वाले साधु श्वेत वस्त्र धारी थे।
लगभग इसी समय 300 ई. पू.में प्रथम जैन सभा में या बाद में जैन धर्म में फूट
पड़ गई।
महावीर के समय से ही वस्त्र धारण करने
को लेकर मतभेद हो गए थे। श्रवणबेलगोला से मगध वापस लौटने वाले भद्रबाहु के अनुयायियों
(भद्रबाहु नहीं का निधन हो चुका था) ने पाटलिपुत्र सभा में संकलित 12 अंगों को मानने
से इंकार कर दिया। उनकी मान्यता थी कि जिन 14 पूर्वो को आधार मानकर उनके संकलन की बात की गई है उनका
तो लोप हो चुका था। इस बात पर दोनों प्रकार
के अनुयायियों में मतभेद बढ़ गया और जैन संघ
दो भागों में बट गया।
पहला पंथ श्वेतांबर था, जो मगध में रह गया था और श्वेत वस्त्र
धारण करने लग गया था या श्वेत वस्त्र धारण कर रहा था। पाटलिपुत्र सभा में निर्धारित
नियम और 12 अंग इस पंथ के प्रमुख आधार बन गए
थे।
दूसरा पंथ दिगंबर साधुओं का था जो वस्त्र धारण नहीं करते थे। इनमें वे अनुयाई
शामिल थे जो श्रवणबेलगोला से आए थे और जिन्होंने 12 अंगो को मानने से इंकार कर दिया था।
द्वितीय जैन सभा
द्वितीय जैन सभा का आयोजन 512 या 513 ई. में वल्लभी
में हुआ था। इसकी अध्यक्षता देवर्धिगणि क्षमाश्रमण
ने की थी।
इस समय तक पाटलिपुत्र की सभा द्वारा निर्धारित
सिद्धांत अव्यवस्थित हो गए थे और 12 वा अंग
दृष्टिवाद लुप्त हो गया था। अतः इस सभा में धार्मिक शास्त्रों को फिर से संकलित किया
गया इस सभा में उपांगो के नाम से नई सूचियों को भी आगम साहित्य में जोड़ा गया।
इस सभा में संकलित अंग और उपांगो
का स्वरूप आज तक विद्यमान है। अंगों को अर्धमागधी में लिखा गया था।
बौद्ध
धर्म की तुलना में जैन धर्म के सीमित प्रचार के कारण :
महावीर स्वामी के जीवन काल में जैन धर्म
मगध और अंग में ही विशेष रूप से प्रचलित हो पाया था ,अन्य क्षेत्रों में इसका प्रचार
सीमित रहा जिसके कारण थे :
1. अहिंसा ,नग्नता ,केश लोच , आमरण अनशन,
कठोर तपस्या के सिद्धांतों के कारण साधारण जनता में लोकप्रिय नहीं हो पाया।
2. जातिभेद का विरोध तो किया गया था परंतु
व्यवहार में इसे कभी लाया नहीं जा सका। संघ प्रवेश में उच्च जातीय व्यक्तियों को ही
प्राथमिकता दी गई।
3. ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध जैन धर्म
अधिक समय तक अपनी पूर्ण पृथक सत्ता कायम नहीं रख सका। जैसे जैसे समय बीतता गया वैसे
वैसे जैन धर्म में ब्राह्मण धर्म के सिद्धांत प्रवेश करते गए।
4. जैन संघ का संगठन इतना जनतंत्रात्मक
नहीं था जितना कि बौद्ध संघ का।
5. बौद्ध संघ का निर्वाह जनता की उदारता
और दानशीलता से होता था परंतु जैन धर्म को
कभी भी जनता की व्यापक सहायता नहीं मिली। वैसे जैन साधु जनता की सहायता भी स्वीकार नहीं करते थे।
6 . बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म ने
उद्भट प्रचारको को कम ही जन्म दिया।
7.
जैन धर्म को किसी भी सम्राट ने राजधर्म के पद पर प्रतिष्ठित नहीं किया।
8. धर्म ग्रंथों के अनुसंधान, शोध और
अध्ययन के लिए बहुत विदेशी यात्रियों के आगमन से बौद्ध धर्म के प्रति लोगों में एक
मनोवैज्ञानिक आकर्षण पैदा हुआ होगा लेकिन। जैन धर्म के अनुसंधान के लिए ऐसे किसी विदेशी
यात्रियों का आगमन नहीं हुआ।
9. बौद्धों की अपेक्षा कलात्मक माध्यमों
से जैन धर्म को कम प्रसिद्धि मिली क्योंकि उससे इस और अधिक ध्यान नहीं दिया था।
10. जैन साहित्य जनता में ज्यादा लोकप्रिय
नहीं हो पाया क्योंकि बाद में यह संस्कृत भाषा में लिखा जाने लगा था।
11. अहिंसा सिद्धांत के कारण किसान लोग
इससे दूर रहे क्योंकि खेती में अनेक कीटों और सूक्ष्म जीवों की हिंसा होती है।
भारत
में जैन धर्म के स्थायित्व के कारण
1. जैन धर्म के अनुयायी सदैव कम रहे है। अल्पसंख्यक समुदाय में एकता संगठन
और संपर्क अधिक सुगम होता है ,जो स्थायीत्व का मूलभूत तत्व है.
2.
जिस प्रकार प्राचीन भारत में अनेक व्यवसायिक वर्ग जाति में परिवर्तित हो गए
उसी तरह जैन धर्म के अनुयायी भी एक जाति के
रूप में संगठित हो गए। अपने समुदाय के भीतर
ही विवाह और खान पान की परंपरा प्रतिष्ठित करने के कारण जैन अनुयायी धार्मिक आधार के
साथ-साथ जातीय आधार पर एक पृथक इकाई हो गए।
इकाईबद्ध समाज की जीवन शक्ति अधिक होती है।
3. ब्राह्मण धर्म के अनेक सिद्धांत जैन
धर्म में प्रविष्ट हो गए थे इसका परिणाम यह हुआ कि जैन धर्म बहुत सी बातों में ब्राह्मण
धर्म के समान दिखाई देने लगा। इस कारण से जैन धर्म का मूलोच्छेदन करने पर तुले अति
ब्राह्मणवादी तत्व समाज में निहित जैन समुदाय को देख नहीं सके। फलत: बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म को कम उत्पीड़न
व अत्याचार झेलना पड़ा।
जैन धर्म की देन
1. अहिंसा का सिद्धांत :अहिंसा का विचार
जैन धर्म की एक महान देन है। न केवल कर्म के
द्वारा अपितु मन और वचन से भी हिंसा को वर्जित किया गया था। यह सिद्धांत इतना लोकप्रिय
हुआ कि अन्य धर्मावलंबियों ने भी इसे स्वीकार कर लिया। अनेक राजाओं ने अहिंसा से प्रभावित
होकर हिंसक युद्धों का त्याग कर दिया। इससे देश में शांति का वातावरण स्थापित हुआ।
2. सामाजिक एकता :
जैन धर्म द्वारा जातीय भेदभाव को अस्वीकार
करने से भारतीय समाज में समानता की भावना और भ्रातृत्व की भावना को भी बढ़ावा मिला।
3. सरल धार्मिक विचारधारा:
जैन धर्म अंगीकार करने से व्यक्तियों को व्ययशील
जटिल यज्ञ कर्म और अनुष्ठानों में पुरोहितों की बाध्यकारी उपस्थिति की स्थिति से मुक्ति
मिल गई। यज्ञ में पशु बलि जैसी हिंसात्मक प्रथाओं को बंद करवाने में जैन धर्म के अहिंसा
सिद्धांत का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
जैन धर्म के समसामयिक प्रचार प्रसार में
भारत में मौलिक वैदिक धर्म की पवित्रता को पुनः स्थापित करने में भी सहयोग दिया।
4. सांस्कृतिक योगदान :
जैन अनुयायियों ने जैन धर्म के प्रचार
हेतु विभिन्न भाषाओं में साहित्य का सृजन किया। इससे प्राकृत,कन्नड़, तमिल ,तेलुगू
,हिंदी ,गुजराती, मराठी आदि भाषाओं में भी उन्नति हुई।
भारतीय दर्शन और चिंतन के क्षेत्र में
जैन धर्म ने पंच महाव्रत, अहिंसा ,स्यादवाद
,धार्मिक सहिष्णुता जैसे कई तत्वों का योगदान दिया।
5. कला के क्षेत्र में योगदान :
राजगृह , गिरनार, पावापुरी ,आबू पर्वत
आदि कई स्थानों पर जैन मंदिरों , मूर्तियों
और गुफाओं के निर्माण से वास्तु कला और मूर्तिकला का काफी विकास हुआ। चट्टानों
को काटकर बनाई गई जैन गुफाओं में एलोरा की इंद्रसभा ,उदयगिरि की सिंह गुफा ,उड़ीसा
की हाथी गुफा विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें