बुधवार, 15 मार्च 2023

बौद्ध धर्म

 

बौद्ध धर्म

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म ने एक प्रबल धार्मिक क्रांति के रूप में खुद को स्थापित किया और शीघ्र ही इसका काफी विस्तृत क्षेत्र में विस्तार हो गया। इस धर्म के सिद्धांत और शिक्षाएं पालि भाषा में त्रिपिटकों  में संकलित है।

जैन सिद्धांतों को ईसा की छठी सदी में लिखित स्वरूप प्रदान किया था इस कारण से बौद्ध धर्म से संबंधित  पालि साहित्य वैदिक ग्रंथों के बाद सबसे प्राचीन रचनाओं की कोटि में आता है।

बौद्ध धर्म के प्रणेता :महात्मा बुद्ध

 बौद्ध धर्म के प्रणेता गौतम बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु (जो शाक्य क्षत्रियों का छोटा सा गणराज्य था)के  राजा शुद्धोधन की पत्नी महामाया /माया देवी जो कोलिय  गण की राजकुमारी थी कि कुक्षि  से नेपाल की तराई में कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी ग्राम (आधुनिक रूम्मिनदई ) के आम्रकुंज में 563 ई.पू.  या 566 ई.पू. में  हुआ ।

 यहीं  लुंबिनी वन में सम्राट अशोक ने एक स्तंभ लेख उत्कीर्ण करवाया था जिस पर लिखा  यह वाक्य आज भी पढ़ा जा सकता है कि "हिद बुधे जाते शाक्यमुनिति  हिद भगवा जातेती "अर्थात "यहां शाक्यमुनि बुद्ध उत्पन्न हुए थे यही भगवान उत्पन्न हुए थे"।

बुद्ध के जन्म के सातवें दिन ही उनकी माता का देहावसान हो गया था। अतः उनका लालन-पालन उनकी मौसी गौतमी द्वारा किया गया था। बालक गौतम को देखकर कालदेव तथा ब्राह्मण कौडिन्य  ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक आगे चलकर बुद्ध होगा।

बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया था और उसे हर प्रकार की राज्योंचित शिक्षा दी गई थी। उसे सांसारिक दु:ख की कल्पना भी न हो इस हेतु सब प्रकार की सुख सुविधाएं ,तीनों ऋतुओं  हेतु अलग अलग प्रकार के राजप्रासाद की व्यवस्था की गई थी। इसी विचार के साथ 16 वर्ष की आयु में ही सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा (अन्य नाम गोपा, बिंबा, भद्रकच्छा )से कर दिया गया था। लेकिन सिद्धार्थ शुरू से ही चिंतनशील और विरक्त भावों से युक्त थे। इसी कारण जब उन्हें पुत्र जन्म का समाचार मिला तो उनके मुख से सहसा निकल गया कि 'राहु (बंधन) उत्पन्न हो गया। इसी से उनके पुत्र का नाम राहुल रखा गया।

बौद्ध ग्रंथों के अनुसार एक बार नगर भ्रमण के दौरान चार दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ की वैराग्य भावना प्रबल हो गई। सिद्धार्थ ने सर्वप्रथम

जर्जर शरीर वाला वृद्ध , फिर रोग ग्रस्त व्यक्ति और एक मृत व्यक्ति को देखा इन तीन दृश्यों से दुखमय  जीवन के प्रति उनके मन में घोर वितृष्णा हुई। चौथा दृश्य था एक प्रसन्न मुद्रा में भ्रमण करने वाले सन्यासी का जो सांसारिक मोह बंध  त्याग कर प्रसन्नचित्त  था।

 इसके बाद उनके पिता द्वारा उन्हें विलासिता की ओर उन्मुख करने के लिए भेजी गई वेश्याओं की नींद के समय की विद्रूप अवस्थाओं को देखकर उनकी संसार त्याग की भावना एकदम प्रबल हो गई।

29 वर्ष की आयु में  एक  दिन पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को नींद में सोता छोड़कर सिद्धार्थ ने गृह त्याग कर दिया। उनके साथ उनका सारथी चाण और घोड़ा कंथक  भी था, जिसे उन्होंने बाद में लौटा दिया। उनका यह गृह त्याग उपर्युक्त प्रकार के दृश्यों से उत्पन्न भावावेश का परिणाम नहीं था बल्कि यह तो दीर्घकालीन अनुभव और चिंतन का फल था।

डॉ. धर्मानंद कोसांबी उनके गृह त्याग का एक राजनीतिक कारण भी बताते हैं। उनके मतानुसार शाक्यों और कोलियों में रोहिणी नदी के पानी को लेकर बहुधा  संघर्ष होता रहता था। ऐसे ही एक अवसर पर कोलियों के दमन का भार गौतम को देने का शाक्यों  ने निश्चय किया। लेकिन गौतम ने शस्त्र ग्रहण करने से इंकार कर दिया। ऐसे में शुद्धोधन को पूरे परिवार सहित राज्य से बाहर जाने का खतरा हो गया। अतः इस संकट से परिवार की रक्षा हेतु सिद्धार्थ ने स्वयं गृह त्याग कर दिया। लेकिन इस मत को उचित नहीं माना जाता।

 बिंबिसार ने बुद्ध  की तरुण अवस्था में उन्हें अपना सेनापति बनने का कहा था परंतु बुद्ध ने पद स्वीकार नहीं किया।

बुद्ध के गृह त्याग की इस घटना को बौद्ध ग्रंथों में 'महाभिनिष्क्रमण' कहा गया है।

 

लंबी यात्रा के बाद बुद्ध वैशाली में आलार कलाम नामक तपस्वी के पास पहुंचे जो संख्योपदेशक थे। गौतम उनके पास रहकर ज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न करने लगे लेकिन आलार कलाम के धर्म में वैराग्य, उपशम और निर्वाण जैसी अवधारणाओं के अभाव के कारण  गौतम ने उनका साथ छोड़ दिया।

यहां से वे राजगृह के पास रूद्रक रामपुत्र नामक आचार्य के पास पहुंचे पर वे भी  गौतम को संतुष्ट नहीं कर सके। आगे चलकर गया के निकट उरुवेला की वनस्थली में उनकी भेंट कौडिन्य  आदि पांच ब्राह्मणों से हुई। उनके साथ घोर तपस्या के बाद भी ज्ञान प्राप्ति न होने पर उन्होंने सुजाता की खीर खाकर तपस्या छोड़ दी।  इस पर उनके साथी उन्हें  पाखंडी घोषित कर ऋषि पतन (सारनाथ) चले गए। इसके बाद गौतम ने गया आकर निरंजना नदी (वर्तमान फlल्गु नदी )के तट पर पीपल के पेड़ के नीचे समाधि लगाई और आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को 35 वर्ष की आयु में उन्हें ज्ञान प्राप्ति हो गई।  बोधगया में ज्ञान प्राप्ति के बाद सर्वप्रथम उन्होंने तपस्सु और भल्लिक  नामक दो बंजारों को उपदेश देकर अपना उपासक बनाया। कहा जाता है कि दलित मानवता के लिए यह गौरव की बात है कि उसी के दो  प्रतिनिधि बौद्ध धर्म के सर्वप्रथम अनुयायी  बने।

इसके बाद बुद्ध बोधगया से सारनाथ (ऋषि पतन /मृगवन )आए और अपने पुराने पांच ब्राह्मण साथियों को ज्ञान का सर्वप्रथम उपदेश देकर अपना शिष्य बनाया। इस घटना को 'धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। इन्हीं शिष्यों को पंच वर्गीय कहा गया। यह थे :आज, अस्सजि ,वाप्प , महानाम, भद्दीय ( इनमें से कोई एक का नाम कौडिन्य भी था)। सारनाथ में ही बुद्ध ने संघ की स्थापना की।

इसके बाद बनारस (काशी) के श्रेष्ठि  यश ने अनेक वैश्यों  के साथ संघ की सदस्यता ग्रहण की। बुद्ध ने संघ के सदस्यों को धर्म प्रचार का आदेश दिया। इसके बाद बुद्ध उरुवेला आए, जो अपने ब्राह्मण धर्म सम्मत कर्म कांडों के लिए प्रसिद्ध था।  यहां कश्यप गोत्रीय  तीन याज्ञिक ब्राह्मण बुद्ध के शिष्य बने इनमें कश्यप सर्वप्रथम था जो बाद में बुद्ध का महत्वपूर्ण शिष्य बना।

इसके बाद वे राजगृह आए उनके आगमन पर मगध नरेश बिंबिसार अपनी प्रजा के साथ दर्शनार्थ आया और संभवत उस ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। कपिलवस्तु में उनकी धाय माता गौतमी ने प्रवर्जित  होने की  इच्छा व्यक्त की। तभी पहली बार संघ में स्त्री के प्रवेश का प्रश्न उठा। बुद्ध ने पहले तो मना कर दिया परंतु विश्व में नारी के समान अधिकार के प्रथम प्रचारक आनंद जो बुद्ध का प्रिय शिष्य था  के आग्रह पर तथागत ने  गौतमी  को प्रवज्या  ग्रहण करने की अनुमति दे दी। गौतमी  के साथ ही उसकी पुत्री नंदा और बुद्ध की भार्या  यशोधरा ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली। कपिलवस्तु में ही गौतमी के पुत्र नंद और बुद्ध के पुत्र राहुल ने भी दीक्षा ले ली। इसके बाद अनुप्रिया नामक स्थान पर शाक्य गणराज्य के राजा भद्रिक तथा उनके सहयोगी आनंद ,अनुरूद्ध ,उपालि  तथा देवदत्त ने भी बौद्ध धर्म को अपनाया। उपालि  बुद्ध का प्रधान शिष्य था।

प्रारंभ में बुद्ध  गृह त्याग को दुख निरोध के लिए आवश्यक मानते थे लेकिन ऐसे में जनता का एक बड़ा वर्ग जो गृहस्थ जीवन में रहना चाहता था इस धर्म से अलग ही रह जाता और जनता के सहयोग के अभाव में धर्म अल्पकाल में ही शिथिल हो सकता था। ऐसे में बुद्ध ने गृहस्थो  को भी बोद्ध धर्म स्वीकार करने की अनुमति दे दी। परंतु उन्हें आजीवन ब्रह्मचर्य और कठोर नियमों से मुक्त कर दिया। इन गृहस्थ बौद्धों  को उपासक की संज्ञा दी गई। इस प्रकार परोक्ष रूप से बुद्ध को ब्राह्मण धर्म के गृहस्थ आश्रम की सर्वोपरि महत्ता और अनिवार्यता को स्वीकार करना पड़ा।

अब महात्मा बुद्ध के अनुयाई 4 वर्गों में विभाजित हो गए : भिक्षु ,भिक्षुणी ,उपासक, उपासिकाए।  इन अनुयायियों में 8 अनुयाई अपनी विद्वता और सदाचारिता के लिए विख्यात थे।  यह थे :

1. सारिपुत्र और महामौद्गलायन : भिक्षु थे

2. क्षेमा और उत्पलवर्णा :भिक्षुणियां

3. चित्र गृहपति एवं हस्तामलक: उपासक

4. वैलूकंटकी नंद माता और खुज्ज :उपासिकाए

 

 धर्म प्रचार हेतु भ्रमण

बुद्ध और उनके शिष्य वर्षा काल के तीन महीनों को छोड़कर वर्ष भर धर्म प्रसार हेतु भ्रमण करते रहते थे। बुद्ध ने अधिकतर धर्म उपदेश श्रावस्ती में दिए थे। श्रावस्ती का धनी व्यापारी अनाथपिंडक बुद्ध का शिष्य हो गया था और उसने बौद्ध मत को उदार दान दिया था।

वर्षा काल में बुद्ध  जिन स्थानों पर रुकते थे उनमें वेलुवन और जेतवन प्रमुख थे। बौद्ध भिक्षुओं के निवास हेतु बिंबिसार ने सर्वप्रथम वेलुवन विहार बनाया था। जेतवन जेत राजकुमार की निजी संपत्ति थी जिसे अनाथपिंडक ने खरीदकर बौद्ध संघ को दान कर दिया था। इस दान का  उल्लेख भरहुत की पाषाण  मूर्ति पर भी मिलता है।

महापरिनिर्वाण :

जीवन के अंतिम काल में बुद्ध  धर्म प्रचार करते हुए वैशाली से पावा गये  और यहां चुन्द या कुंद नामक कर्मारपुत्र( सुनार) या लुहार के घर पर भोजन किया। इसके कारण वे पेचिश  से पीड़ित हो गए।  इसी अवस्था में वे कुशीनगर जो मल्लो की दूसरी राजधानी थी पहुंचे। यहां पर आनंद को दिए उपदेश में धर्म और विनय  को उनका शास्ता (निर्देशक) बता बिना उत्तराधिकारी नियुक्त किए 80 वर्ष की आयु में 486 ईसा पूर्व या 486 ईसा पूर्व में महात्मा बुद्ध का महापरिनिर्वाण हो गया। महापरिनिर्वाण के बाद उनके अवशेषों को आठ भागों में विभक्त किया गया और विभिन्न  स्थलों पर 8 स्तूप बनाएंगे। बौद्ध साहित्य में इन 8 स्तूप निर्माताओं के नाम इस प्रकार मिलते हैं

1. मगध नरेश अजातशत्रु 2. `वैशाली के लिच्छवि 3.  कपिलवस्तु के शाक्य 4. अलकप्प  के बुलिय 5  रामग्राम के कोलिय 6. वेट्ठद्वीप  के ब्राह्मण 7. पावा के मल्ल 8.  पिप्पलीवन के मौर्य।

 बुद्ध द्वारा अंतिम समय में खाया  गया पदार्थ सुअरमद्द्व  विवादास्पद है। पालि  साहित्य के प्रारंभिक भाष्यकारों  ने इसका अर्थ सूअर के मांस का टुकड़ा माना जबकि वर्तमान भाष्यकार इसे कंद -मूल फल मानते हैं।सुअरमद्द्व नामक शब्द उड़द की दाल हेतु भी प्रयुक्त  होता है ।    साल वृक्ष के नीचे उनका देहावसान हुआ था।

महात्मा बुद्ध के प्रमुख शिष्य

1. आनंद :यह शाक्य वंशी बुद्ध  का चचेरा भाई था। बुद्ध के अधिकांश उपदेश इसे ही संबोधित है।

2. सारिपुत्र :यह ब्राह्मण था।

3. मौद्गल्यायन: यह भी ब्राह्मण था।

4. उपालि : यह नापित पुत्र था और उसके पिता शाक्य वंश के नापित थे।

5. सुनीति :यह हरिजन था।

6. देवदत्त: यह आनंद का बड़ा भाई था और उसने तथागत की हत्या करने का भी प्रयास किया था।

7. जीवक

8. उस समय का कुख्यात डाकू अंगुलिमाल भी बुद्ध से प्रभावित होकर उनका अनुयाई बन गया था। वह जिसे लूटता था उसकी अंगुलियां काटकर माला बनाकर पहनता था।

बौद्ध संघ की कुछ प्रमुख महिला सदस्य

1. गौतमी :संघ में सर्वप्रथम गौतमी ने प्रवेश किया था।

2. विशाखा :यह बौद्ध संघ की संरक्षिका थी। पूर्वाराम विहार उसी के द्वारा बनाया गया था। यह अंग जनपद के श्रेष्ठी की पुत्री थी।

3. नंदा

4. यशोधरा

5. खेमा : बिंबिसार की पत्नी

6. आम्रपाली :यह वेश्या थी

 बौद्ध धर्म की प्रमुख विशेषताएं

1. प्रयोजनवाद : मूल बौद्ध धर्म का कोई पृथक दर्शन  नहीं था क्योंकि महात्मा बुद्ध ने परमसत्ता के संबंध में  कभी अपना विचार प्रकट नहीं किया था। इस प्रकार के प्रश्नों पर होने वाले वाद विवाद को अनावश्यक समझते थे।

महात्मा बुद्ध  नितांत प्रयोजन वादी थे ,अतः उन्होंने उन्हीं विषयों पर प्रवचन दिया जो मनुष्य के परम कल्याण के लिए आवश्यक है।  लोक ,जीव ,परमात्मा और पुनर्जन्म  संबंधी विवादों को उन्होंने व्यर्थ समझा, यही उनका प्रयोजनवाद था।

 

इसीलिए उन्होंने 10 अकथनीय सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। इसके तहत 10 विषय ऐसे थे जिन पर मौन रहने के लिए महात्मा बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सलाह दी थी। यह थे :

1. क्या लोक  नित्य हैं? 2. क्या लोक अनित्य है? 3. क्या लोक सान्त हैं ? 4. क्या लोक अनंत हैं ? 5. क्या जीव और शरीर एक हैं ? 6. क्या जीव और शरीर भिन्न है

7. क्या मृत्यु के बाद तथागत होते हैं 8. क्या मृत्यु के बाद तथागत नहीं होते ? 9.  क्या मृत्यु के बाद तथागत होते भी है और नहीं भी होते हैं 10.  क्या मृत्यु के बाद तथागत होते भी हैं नहीं भी होते हैं ?

बुद्ध के अनुसार इस प्रकार के मतों के चक्कर में फंसा व्यक्ति दुख से पार नहीं हो सकता है। आज जो कुछ भी बौद्ध दर्शन के नाम से प्रख्यात हैं वह महात्मा बुद्ध की मृत्यु के बाद का विकास है।

 सृष्टि का   परम तत्व  क्या है , सृष्टि का विकास किन तत्वों से होता है ,इन तत्वों का धर्म क्या है ऐसे विषयों पर चर्चा नहीं होने के कारण बौद्ध धर्म का अध्यात्मशास्त्र भी नहीं था।

2. महात्मा बुद्ध का धर्म अत्यंत व्यवहारिक था। उसमें कहीं अंधविश्वासों और अन्य परंपराओं का स्थान नहीं था।

महात्मा बुद्ध ने कालाम  क्षत्रियों को संबोधित करते हुए कहा था "कलामो  न तुम श्रुत के कारण किसी बात को मानो ,न तर्क के कारण, न वक्ता के आकार के कारण, न अपने चिर विचारित  मत के अनुकूल होने से, न वक्ता के भव्य रूप होने से और न हीं इसलिए कि श्रमण हमारा गुरु है यह सोचकर। बल्कि कलामो ! जब तुम स्वयं ही जानो कि यह बातें अच्छी अदोष और ग्रहण करने पर हित - सुख के लिए होगी, तो कलामो तुम इसे स्वीकार करो।

बुद्ध का धर्म किसी यांत्रिक कर्मकांड, सूक्ष्म दार्शनिकता अथवा पौराणिक अंध मान्यताओं पर आधारित नहीं था।

3.  तथागत का धर्म जनवादी था वह किसी वर्ग विशेष की संपत्ति नहीं था उसके द्वार सबके लिए खुले थे। यह धर्म सबसे कहता है आओ और देखो।  यही इस धर्म का प्रत्यक्षवाद है।

 4. बौद्ध धर्म व्यक्ति निरपेक्ष है। यह धर्म तथागत की भी अपेक्षा नहीं करता। इसीलिए बुद्ध ने कहा था तथागत चाहे  उत्पन्न  हो ,चाहे ना हो ,धर्म नियमितता तो रहती ही है।

5. अनिश्वरवाद :बौद्ध धर्म  अनिश्वरवादी है। ईश्वर में विश्वास न होने के कारण इसे नास्तिक संप्रदाय भी कहा जाता है। इस धर्म में सृष्टि का कारण ईश्वर को नहीं माना गया है। उसने ईश्वर के स्थान पर मानव प्रतिष्ठा पर बल दिया था।

नितांत  कर्मवादी  होने के कारण उन्होंने मानव कल्याण के लिए ईश्वर संबंधी प्रश्नों को अनावश्यक समझा ,इसलिए वे इस पर मौन  रहे।

लेकिन बौद्ध धर्म में परम तत्व के अस्तित्व पर परोक्ष रूप से संकेत किया गया है ऐसा कुछ विद्वान मानते हैं।

बौद्ध धर्म :प्रमुख सिद्धांत

१. चार आर्य सत्य :

गौतम बुद्ध ने समस्त भौतिक संसार  को दुखों से आवृत स्वीकार करते हुए चत्वारि आर्य सत्यानि का उपदेश दिया। यह चार आर्य सत्य इस धर्म के सारे सिद्धांतों और बाद में विकसित विभिन्न मतों के भी आधार हैं। यह है:

1.  दु:ख 2.  दु:ख समुदाय (कारण) ३.  दु:ख निरोध तथा 4. दु:ख निरोध गामिनी प्रतिपदा (अष्टांगिक मार्ग)

1.  दु:ख  : बुद्ध  के अनुसार जन्म भी दु:ख है ,जरा भी दु:ख है ,व्याधि भी दु:ख है ,मरण भी दु:ख है और अप्रिय मिलन भी दु:ख है, प्रिय वियोग भी दु:ख है। अर्थात संसार की सभी वस्तुएं दु:खमय हैं। उनके अनुसार इन दु:खों में जीव ने महा समुद्र के जल से भी अधिक आंसू बहा दिए हैं।

2. दु:ख समुदाय : दु:ख उत्पन्न होने के अनेक कारण हैं ,परंतु सभी कारणों का मूल है तृष्णा।  तृष्णा  से ही राग और आसक्ति पैदा होती है ,जो दुख का कारण बनते हैं।

3. दु:ख निरोध :दु:ख के निवारण (निरोध) के लिए तृष्णा या इच्छा को त्यागना ही एकमात्र उपाय हैं। बुद्ध के अनुसार रूप, वेदना, संस्कार का निरोध ही दु:ख का निरोध है।

४. दु:ख निरोध गामिनी प्रतिपदा :

 तृष्णा एवं अन्य दूषित मनोवृतियों  एवं संस्कारों का निरोध करने के लिए बुद्ध ने जो मार्ग बताया वह दु:ख निरोध गामिनी प्रतिपदा के नाम से प्रख्यात है। इसमें 8 अंगों का अनुवर्तन है अतः इसे अष्टांगिक मार्ग भी कहते हैं।

 

अष्टांगिक मार्ग

1. सम्यक्  दृष्टि :इसमें मनुष्य सत्य -असत्य, पाप- पुण्य, सदाचार -दुराचार में भेद कर सकता है। चार आर्य सत्य को पहचानना सम्यक दृष्टि का ही कार्य है।

२. सम्यक् संकल्प :कामना और हिंसा से मुक्त संकल्प करना जिसका उद्देश्य मानवता की भलाई और प्रसन्नता हो।

३. सम्यक् वाणी :जो वाणी सत्य, विनम्रता और मृदुता से युक्त हो उसको आचरण में लाना। धर्म वार्ता इसमें प्रमुख विषय है।

४. सम्यक् कर्मान्त :स्वार्थ रहित सत्कर्मों में संलग्न रहना।

5. सम्यक अजीव (आजीविका ):ईमानदारी से  अर्जित  साधनों द्वारा जीवन यापन

6.  सम्यक् व्यायाम (प्रयास): विवेकमय  और ज्ञान युक्त प्रयत्नों के द्वारा अपनी इच्छा और मोह को नष्ट करने का प्रयास करना। बुरे विचारों से छुटकारा पाने के लिए इंद्रियों को नियंत्रित करना।

7. सम्यक् स्मृति :इसके तहत बुद्ध ने व्यक्तियों को अपने कर्मों के प्रति हमेशा सजग रहने का मार्ग बताया है।

इस सजगता के चार प्रकार बुद्ध ने बताए हैं जिन्हें चार स्मृत प्रधान भी कहा जाता है।  यह है

(i )काया से कायानुपश्यना : शरीर के प्रत्येक संस्कार और उसकी चेष्टा के प्रति जागरूक रहना।  सम्यक दृष्टि से उन्हें देखते रहना।

(ii )वेदना से वेदनानुपश्यना:  दुख और सुख की अनुभूतियों के प्रति सजग रहना।

(iii )चित्त से चित्तानुपश्यना: राग द्वेष के प्रति सजग रहना।

(iv )धर्म से धर्मानुपश्यना :मन वचन और काया की प्रत्येक चेष्टा को भली-भांति समझने समझते रहना ,चार आर्य सत्य से परिचित होना।

8. सम्यक् समाधि : चित्त की समुचित एकाग्रता बनाए रखना।

 बुद्ध के अनुसार इन अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण कर व्यक्ति  निर्वाण की ओर अभिमुख हो सकता है।

 

3. त्रिस्कंध:

 कुछ स्थानों पर बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग को तीन शब्दों में सीमित कर दिया है। यह है :शील (सदाचार), समाधि और प्रज्ञा (सम्यक् ज्ञान).

 इन तीन शब्दों को त्रि स्कन्ध  कहा जाता है। इनके अंतर्गत अष्टांगिक मार्ग का विभाजन इस प्रकार किया गया है :

(i )प्रज्ञा स्कंध :सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प

(ii )शील स्कंध :सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्मान्त ,सम्यक् आजीव ,सम्यक्  व्यायाम

(iii )समाधि स्कंध : सम्यक् स्मृति ,सम्यक् समाधि।

इन तीन इस स्कन्धों  का विवेचन भी किया गया है :

प्रज्ञा :  सहृदय  ज्ञान को कहा गया है , जिसमें श्रद्धा का भाव भी समाहित है। कोरा ज्ञान जड़ता का द्योतक माना जाता है।

शील : चारित्रिक उत्कृष्टता और सदाचारिता  का पर्याय है।

समाधि : चित्त की एकाग्रता को कहा गया है।

4. मध्यम मार्ग :

बुद्ध  के अष्टांगिक मार्ग को मध्यम मार्ग भी कहा जाता है। इस मार्ग में बुद्ध ने विलासिता अर्थात अत्यंत सुख में जीवन व्यतीत करना और अत्यधिक काया क्लेश में संलग्न रहना ,दोनों का निषेध किया है। उन्होंने इस संबंध में मध्यम मार्ग (मध्यम प्रतिपदा )का उपदेश दिया है।  बुद्ध ने एक जगह पर कहा है "वीणा के तारों को इतना भी मत खींचो कि टूट जाए। इतना ढीला भी मत छोड़ो कि बजे ही नहीं।

 5. प्रतीत्यसमुत्पाद : प्रतीत्य  अर्थात इसके होने से ,समुत्पाद अर्थात ऐसा होता है। बौद्ध धर्म के अनुसार इस संसार का कोई भी विषय किसी न किसी कारण से हैं। जन्म के कारण ही जरा मरण होता है जिसमें दुख प्राप्ति होती है और इसी प्रकार जन्म का कारण भी कर्म फल उत्पन्न करने वाला अज्ञान रूपी चक्र है।

संपूर्ण संसार कार्य कारण की इस श्रृंखला में बंधा है , जिसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहा गया है।

यह  श्रृंखला निरंतर चलती रहती है जब तक जीव इस  भव चक्र से मुक्ति अर्थात निर्वाण प्राप्त नहीं कर लेता।

 प्रतीत्यसमुत्पाद कि इस कार्य कारण श्रृंखला में 12 क्रम गिनाए गए हैं जो क्रमश एक दूसरे को उत्पन्न करने का कारण होते हैं।   यह है :

1. अविद्या 2. संस्कार 3.  विज्ञान (चैतन्य ) ४. नामरूप(शरीर ) 5. षड़ायतन (5 कर्मेंद्रिय और मन) 6. स्पर्श  7. वेदना  8. तृष्णा 9. उपादान (विषय राग: संसार के विषयों में लिपटे रहने की इच्छा) 10. भव ( शरीर धारण करने की इच्छा ) 11. जाति (शरीर धारण करना )और 12. जरा-मरण।

 

यही बौद्ध धर्म का प्रतीत्यसमुत्पाद है। इसे द्वादश निदान भी कहा गया है। अर्थात इन्हें समझ कर इन्हें निर्माण प्राप्ति का माध्यम बनाया जा सकता है। इसे भव चक्र भी कहा गया है और इस भव चक्र का अंत करने के लिए अविद्या का अंत करना आवश्यक है।  ज्ञान ही अविद्या का उच्छेद  करके व्यक्ति को निर्माण की ओर ले जाने में समर्थ है।

प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध दर्शन तथा सिद्धांतों का मूल तत्व है। अन्य सिद्धांत इसी में निहित है। बुद्ध ने स्वयं इसके महत्व को दर्शाते हुए कहा था कि "जो प्रतीत्यसमुत्पाद को समझता है वह धर्म को समझता है"।

जन्म का कारण रूपी कर्म का सिद्धांत भी इसी प्रतीत्यसमुत्पाद पर आधारित है। कर्म ही मनुष्य के सुख दुख का दाता है।

 इसी कर्म सिद्धांत के आधार पर महात्मा बुद्ध ने चतुर्वर्ण शुद्धि का प्रतिपादन किया था। उनका उपदेश था कि जो भी मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो ,क्षत्रिय हो , वैश्य हो अथवा शूद्र  सम्यक कर्म करेगा वह मोक्ष का अधिकारी होगा।

क्षणभंगवाद या क्षणभंगुरवाद /क्षणिकवाद  और नैरात्मवाद   के सिद्धांत भी प्रतीत्यसमुत्पाद के ही अंग हैं।

6. क्षणिकवाद

बुद्ध ने संसार की प्रत्येक वस्तु को क्षणिक,अनित्य तथा परिवर्तनशील कहा है। अविद्या तथा अज्ञान वश जो स्थायी  दिखाई देता है वह भी विनाश होने योग्य है। जिस तरह नदी का जल तथा दीपक की ज्योति प्रतिपल बदलते रहने पर भी एक समान प्रतीत होती है उसी प्रकार प्रवाह रूप में बने रहने के कारण अनित्य होने पर भी भौतिक संसार नित्य अथवा स्थायी  दिखाई देता है।

बौद्ध धर्म में इस अनित्यवाद को क्षणिकवाद कहा गया है और इस परिवर्तन शीलता का कारण प्रतीत्यसमुत्पाद ही है। अर्थात संसार की प्रत्येक वस्तु विशिष्ट परिस्थितियों तथा कारण से पैदा होती है अतः वह परिस्थिति तथा कारण विशेष पर निर्भर है और इसीलिए परिमीत और अस्थाई है। कारण- परिस्थिति नहीं रही तो वह भी नहीं रहेगी इसी कारण से वह क्षणिक भी हैं।

7. अनात्मवाद /नैरात्मवाद : प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत के अनुसार संपूर्ण संसार में सब कुछ अस्थायी  और गतिशील एवं परिवर्तनशील है अतः आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं हो सकती।

बुद्ध ने कहा पांच स्कन्धों रूप, वेदना, संज्ञा ,संस्कार एवं विज्ञान से युक्त शरीर में आत्मा नामक तत्व का कोई अस्तित्व नहीं है।

बुद्ध द्वारा प्रतिपादित यह अनात्मवाद  बताता है कि क्षणिक भावनाओं एवं विचारों का समूह आत्मा के रूप में दिखाई देता है। पुनर्जन्म आत्मा के बिना भी संभव है। कुछ विद्वानों के अनुसार वास्तव में बुद्ध ने आत्मा के विषय को अमनसिकरणीय  धर्म (मनुष्यों के न करने योग्य विवाद )बताया था। उन्होंने आत्मवाद और अनात्मवाद के बारे में स्पष्टीकरण नहीं किया था।

8. पुनर्जन्म :

बौद्ध धर्म कर्म के फल में विश्वास करता है। अपने कर्म के फल से ही मनुष्य अच्छा बुरा फल प्राप्त करता है। लेकिन आत्मा के अस्तित्व के बारे में कुछ स्पष्ट किए बिना ही यह धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है।

अब यह पुनर्जन्म किसका होता है। इस प्रश्न का उत्तर मिलिंदपञ्हो  में आचार्य नागसेन द्वारा दिया गया है। उनके अनुसार कर्म फल चेतना के रूप में पुनर्जन्म का कारण बनता है। उनके अनुसार जिस प्रकार जल प्रवाह में एक लहर के पश्चात दूसरी लहर आती है और वह सक्रम  रहता है उसमें कोई व्यवधान नहीं होता उसी प्रकार एक जन्म की अंतिम चेतना के विलय होते ही दूसरे जन्म की प्रथम चेतना का उदय होता है। यह परिवर्तन इस प्रकार होता है कि विलय और उदय के बीच कोई व्यवधान नहीं होता।

 

9. शील के 10 नियम :

महात्मा बुद्ध ने आचरण की शुद्धता के लिए शील अथवा सदाचार के 10 नियमों का अनुसरण आवश्यक बताया है। यह है :

1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय (चोरी नहीं करना या किसी को नहीं ठगना ) 4. अपरिग्रह (संग्रह नहीं करना ,आवश्यकता से अधिक वस्तु का संग्रह नहीं करना ,आवश्यकता से अधिक वस्तु का परित्याग)। 5. ब्रह्मचर्य (व्यभिचार से बचना) 6. मद्य (नशीले पदार्थों )का सेवन नहीं करना  7. असमय भोजन का त्याग  8. सुखप्रद बिस्तर का त्याग  9. सुगंधित द्रव्य -माला आदि का त्याग  10. नृत्य संगीत के कार्यक्रमों से , गणिकाओं  के नृत्य से और स्त्रियों के संसर्ग से बचना।

१०. निर्वाण

 बौद्ध धर्म के अनुसार मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है  निर्वाण प्राप्ति। निर्वाण का अर्थ है बुझना या शांत हो जाना। दुख के मूल कारण तृष्णा के समाप्त होने की स्थिति को निर्वाण  कहा गया है। (अर्थात अविद्या का नाश होना)

 लेकिन यहां निर्वाण  का सिद्धांत अन्य धर्मों के मोक्ष के सिद्धांत से अलग हैं। जैसे कि वैदिक धर्म में आत्मा के परमात्मा में विलय और जन्म मरण के चक्र से मुक्ति को मोक्ष बताया गया है।

बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण  मनुष्य जीवित रहते हुए भी प्राप्त कर सकता है। महात्मा बुद्ध निर्वाण प्राप्ति के बाद कई दिनों तक जीवित रहे थे। बौद्ध धर्म में इसका अर्थ संभवत परम ज्ञान से है।

 महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही संभव है।

बौद्ध संघ

बौद्ध धर्म में संघ का महत्वपूर्ण स्थान था। यह 3 रत्नों (बुद्ध ,धम्म और संघ )का एक अनिवार्य अंग है।

जहां तरफ आदर्शमय  जीवन का केंद्र होने के कारण समाज में आदरणीय था, वहीं  संघ के भिक्षुयों  द्वारा अनवरत धर्म उपदेश देते रहने के कारण यह धर्म प्रचार का मुख्य साधन भी था।

सारनाथ में धर्म का प्रथम उपदेश देने के बाद अपने प्रथम पांच शिष्यों के साथ बुद्ध ने संघ की स्थापना की थी।

बौद्ध संघ का संगठन गणतंत्रात्मक प्रणाली पर आधारित था। महापरिनिर्वाण सूत्र में उल्लेखित बुद्ध की 7 बातों से इस प्रणाली की विशेषताएं स्पष्ट होती है।

१. जब तक भिक्षु  आपस में एकत्र होकर अपनी सभाएं करते रहेंगे तब तक भिक्षुयों  की वृद्धि होती रहेगी ,हानि नहीं।

2. जब तक भिक्षु एक साथ हो संघ के कार्यों को संपन्न करते रहेंगे तब तक भिक्षुओं की वृद्धि समझना हानि नहीं।

3. जब तक भिक्षु संघ विहित नियमों का पालन करते रहेंगे और संघ विरुद्ध नियमों का अनुसरण नहीं करेंगे तब तक संघ वृद्धि करता रहेगा।

४. जब तक भिक्षु संघ के नायक स्थविरों  का सम्मान करते रहेंगे उनकी बातों को ध्यान से सुनते  और समझते रहेंगे तब तक संघ  वृद्धि करता रहेगा।

5. जब तक भिक्षु तृष्णा के जाल से दूर रहेंगे तब तक संघ वृद्धि करता रहेगा।

6.  जब तक भिक्षु वन कुटीरो में निवास करने की इच्छा वाले रहेंगे तब तक संघ वृद्धि करता रहेगा।

7. जब तक भिक्षु संघ में ब्रह्मचर्य पालन पर ध्यान देते रहेंगे तब तक संघ वृद्धि करता रहेगा।

बुद्ध ने ऐसी ही सात  बातों के न्यूनाधिक  रूप से वज्जि  संघ में होने से उसकी अपराजितता  की बात अजातशत्रु के  मंत्री वस्सकार से की थी ,जो वज्जि संघ को समाप्त करने हेतु बुद्ध से सलाह लेने आया था।  इससे स्पष्ट है कि वज्जि जो गणतंत्र था और उसी तरह बौद्ध संघ भी गणतंत्रात्मक था।

बुद्ध ने वर्ग विहीन जनजातीय जीवन के सैद्धांतिक पक्ष को संघ के लिए उपयोगी समझा था। वर्ग विहीन जनजातीय जीवन में पाई जाने वाली सामाजिक एकता भाईचारा तथा संपत्ति संग्रह के प्रति अनासक्ति को हम संघ के नियमों में स्पष्ट रूप से  पाते हैं।

संघ में न तो छोटे बड़े का कोई भेद था और नहीं बुद्ध ने अपना कोई उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उन्होंने धर्म और विनय को शास्ता (शासक ) माना।  यह तथ्य गणतंत्रात्मक मूल्यों के प्रति बुद्ध की आस्था को ठोस आधार पर उजागर करता  हैं।

संघ  की कार्यप्रणाली वर्तमान संसदीय प्रणाली की भांति थी।  कोई भी प्रस्ताव 3 बार पढ़ने पर ही स्वीकृत होता था।  प्रस्ताव पर मतदान की व्यवस्था होती थी। बहुमत का निर्णय मान्य होता था। कभी-कभी प्रस्ताव विशेष विचार के लिए उपसमिति (उब्बावाहिका )को सुपुर्द कर दिया जाता था। सभा की वैध  कार्रवाई के लिए न्यूनतम उपस्थिति (कोरम ) 20 थी।

वर्षा ऋतु में भिक्षु  जिन स्थानों में निवास करते थे उन्हें आवास (विहार) कहते थे।  यही आवास कालांतर में स्थानीय संघों के रूप में विकसित हुए। इन्हीं स्थानीय संघों से बाद में बौद्ध मतों का जन्म हुआ।

इन सब स्थानीय संघों के ऊपर चतुर्दिश संघ  होता था। विहारों  का जीवन सामूहिक था।

संघ में प्रवेश को उपसंपदा कहा जाता था। बौद्ध धर्म में इसका वही महत्व है जो ब्राह्मण धर्म में उपनयन संस्कार का था। प्रारंभ में बुद्ध स्वयं उपसंपदा संपादित करते थे परंतु प्रवेशार्थियों  की संख्या बढ़ने पर यह अधिकार अन्य भिक्षुओं को भी दिया गया।

संघ में प्रवेश हो जाने पर भिक्षु को किसी आचार्य के निरीक्षण में रहकर कुछ वर्षों तक अध्ययन करना पड़ता था। इस काल को निस्साय कहा जाता था।

प्रारंभ में कोई भी व्यक्ति प्रवज्या ग्रहण कर भिक्षु  हो सकता था ,लेकिन कालांतर में जब युवा क्षणिक आवेश में आकर दीक्षा लेने लगे, लोग संघ की सुख सुविधाओं के लिए दीक्षा लेने लगे और बिंदुसार ने किसी भी व्यक्ति द्वारा बौद्ध भिक्षुओं को हानि नहीं पहुंचाने का जो आदेश दिया था उसके बाद कई चोर डाकू हत्यारे और ऋणी भी बौद्ध  भिक्षु बनने लगे ;तब परिस्थिति वश संघ प्रवेश हेतु कुछ नियम बनाए गए।

नई नियमावली के अनुसार 15 वर्ष से कम आयु का युवक ,अपराधी ,कुष्ठ रोगी, संक्रामक रोगी ,हत्यारे और ऋणी संघ में प्रवेश नहीं कर सकते थे। युवाओं हेतु प्रवेश से पूर्व माता-पिता की आज्ञा लेना जरूरी था। क्लीव व  दास भी संघ प्रवेश नहीं पा सकते थे।

भिक्षुओं के नियम

भिक्षुओं  को आदेश था कि वे दिनभर भिक्षचरण  कर रात में अपने आवास में आ जाए। उन्हें बौद्ध मत  का प्रचार भी करना होता था। रात में वे अध्ययन अध्यापन चर्चा आदि करते थे।

वर्षा ऋतु में 4 महीनों में  एक निश्चित स्थान पर बिस्तर लगा कर एक जगह टिककर समाधि  करते थे , इसे आश्रय या वशा  कहा जाता था।

समय-समय पर सब भिक्षु एकत्र होकर पातिमोक्ख(प्रतिमोक्ष )का पाठ करते थे।  पातिमोक्ख बौद्ध भिक्षुओं के निमित्त विधि निषेधो  का संग्रह था।

कालांतर में उपोसथ का विकास हुआ। कुछ पवित्र दिवसों पर सारे भिक्षुयों  का एकत्र होकर धर्म चर्चा करना उपोसथ था। इस  उपोसथ  में पातिमोक्ख भी पढ़ा जाता था।

उपोसथ में सम्मिलित होने से  पूर्व कृत्य अपराधों की स्वत:  स्वीकृति द्वारा प्रत्येक भिक्षु को परिशुद्धि करनी पड़ती थी।

बौद्ध भिक्षु तीन वस्त्र (त्रि चीवर) धारण कर सकता था। अंतर्वासक , उत्तरसंग़  और संघाटि। यह कासाय (गेरुए ) रंग से रंगे होते थे।

भिक्षुओं को वस्त्र देने के लिए एक समारोह का आयोजन किया जाता था इसे 'कंथिन' कहते थे।

ब्राह्मणवाद के विपरीत बौद्ध मत में सभी वर्गों के लोग शिक्षा ग्रहण कर सकते थे। स्वाभाविक है कि जिन लोगों को ब्राह्मणों ने शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया था उनको  बौद्ध मत में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला और इस प्रकार शिक्षा समाज के सभी वर्गों में फैल गई।

बौद्ध धर्म का विस्तार

गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण से पूर्व ही बौद्ध धर्म का प्रचार लगभग संपूर्ण भारत में हो गया था। मगध, कौशांबी ,कौशल , वज्जि  और शाक्य आदि राजतंत्रात्मक और गणतंत्रात्मक राज्यों ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया था।

अशोक और कनिष्क के समय बौद्ध धर्म को राज्य धर्म होने की प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई। ह्वेनसांग और इत्सिंग नामक चीनी यात्रियों के विवरण से ज्ञात होता है सातवीं सदी के अंत तक बौद्ध धर्म काफी प्रचारित और समृद्धिशाली था। अशोक ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म प्रचारक भेजे थे। कनिष्क के काल में चीन और जापान में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ। ह्वेनसांग ने हर्ष के समय 10000 बौद्ध  विहारो का होना बताया है इनमें 75000 भिक्षु भिक्षुणियाँ  रहते थे।

बंगाल और बिहार में पाल वंश के समय बौद्ध आचार्य तिब्बत गए और वहां बौद्ध धर्म का प्रचार किया।

बौद्ध धर्म के विकास में चार बौद्ध संगीतियों (सभाओं ) का काफी महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

प्रथम बौद्ध संगीति

अनुश्रुतियों यों के अनुसार बुद्ध की मृत्यु के 2 माह बाद 483  ईसा पूर्व में मगध की राजधानी राजगृह के पास सप्तपर्णी गुफा में बौद्ध धर्म की प्रथम सभा का आयोजन किया गया था। 

इस समय वहां का शासक हर्यकवंशी अजातशत्रु था।

सभा की अध्यक्षता महाकश्यप ने की थी।

वह स्थविरों (तथाकथित रुढ़िवादियों )की सभा थी।

 इसमें बुद्ध की शिक्षाओं में समाहित सैद्धांतिक नियमों और अनुशासन के नियमों को सुत्तपिटक और विनय पिटक में संकलित किया गया था। यह संकलन क्रमशः आनंद और उपालि  द्वारा किए गए थे।

द्वितीय बौद्ध संगीति

यह सभा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 100 वर्ष बाद 386 या 387 ई.पू. में वैशाली ( बिहार) में चुल्लवग्ग नामक  स्थल पर आयोजित की गई।

इस समय मगध का शासक शिशुनागवंशी  कालाशोक था।

सभा की अध्यक्षता शब्दकामी (यश) ने की थी।

इस सभा में भिक्षुयों  के दो गुटों में तीव्र मतभेद पैदा हो गया।  एक गुट पूर्वी  गुट था जिसमें पाटलिपुत्र तथा वैशाली के भिक्षु  थे जिन्होंने अनुशासन के 10 नियमों का निर्धारण किया था। परंतु इन नियमों को पश्चिमी गुट  जिसमें अवंती ,कौशांबी और पाटन के भिक्षु थे , के द्वारा बुद्ध की शिक्षाओं के विपरीत घोषित कर मानने  से इंकार कर दिया गया।

इस तरह से बौद्ध धर्म में दो गुट उभर आए। सभा  दोनों में समझौता करवाने में विफल रही।

पूर्वी गुट महासांघिक या अचोरयावादी कहलाया , इन्होंने महाकश्यप के नेतृत्व में संप्रदाय में विनय के नए नियमों को स्वीकार किया। यह प्रगतिवादी कहलाए। पश्चिमी गुट स्थविरवादी या थेरवादी कहलाए। महाकच्चायन  के नेतृत्व में इन्होंने विनयपिटक में वर्णित परंपरागत विचारों को अपनाया।  यह रूढ़िवादी कहलाए। कालांतर में महासांघिक  7 पंथो में और थेरवादी  11 पथों में बट गए।

तृतीय बौद्ध संगीति

तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन 250 ई.पू.में पाटलिपुत्र के अशोका राम विहार में मौर्य सम्राट अशोक द्वारा करवाया गया था। इसका नेतृत्व मोग्गलिपुत्त तिस्स ने  किया था। इसमें स्थविरवादी भिक्षुओं ने ही भाग लिया था। महासांघिक प्रतिनिधि इसमें शामिल नहीं हुए।

इस सभा में मोग्गलिपुत्त तिस्स ने महासांघिको के  मतों का खंडन करते हुए अपने सिद्धांतों को ही बुद्ध के मौलिक सिद्धांत घोषित किया था।

इस सभा में बुद्ध  के सिद्धांतों की दार्शनिक विवेचना को संकलित किया गया जो अभिधम्म पिटक नाम का तीसरा पिटक कहलाया।  इस प्रकार बुद्ध की शिक्षाओं के तीन भाग हो गए :सुत्त ,विनय और अभिधम्म।  

मोगलीपुत्त  ने 'कथावस्तु 'नामक ग्रंथ संकलित किया जो अभिधम्म पिटक  के अंतर्गत आता है।

इस सभा में बौद्ध मत  को असंतुष्टो  एवं नए परिवर्तनों से मुक्त कराने का प्रयास किया गया। 60000 भिक्षुयों को इस सभा द्वारा संघ से निष्कासित कर दिया गया।  संघ भेद को रोकने के लिए कठोर नियमों का निर्माण किया गया। सप्त उपदेशो के साहित्य को परिभाषित किया गया व बौद्ध  साहित्य का प्रमाणीकरण किया गया।

चतुर्थ बौद्ध संगीति

बौद्ध धर्म की चौथी और अंतिम संगीति कुषाण शासक  कनिष्क के राज्य काल में (प्रथम शताब्दी ईस्वी)(120 ई। ) कश्मीर के कुंडल वन में (श्रीनगर के पास)हुई थी। इसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी और उपाध्यक्ष अश्वघोष को बनाया गया था।

500 विद्वानों ने इसमें भाग लिया था। 6 माह तक चले इस सम्मेलन में समस्त बौद्ध साहित्य पर विचार किया गया और कठिन अंशों पर टीकाएँ  लिखकर संस्कृत भाषा में विभाषाशास्त्र या महाविभाष्य के नाम से संकलित कर दिया गया। टीकाओं को एक विशेष निर्मित स्तूप में रखा गया था।

इस सभा में स्थविरवादी  और महासांघिक  दोनों पक्ष उपस्थित हुए थे। लेकिन इस सभा में इन दोनों का प्रत्यक्ष रूप से विभाजन हीनयान और महायान में हो गया।  बुद्ध की परंपरागत शिक्षाओं में विश्वास करने वाले हीनयान कहलाए ,जबकि इनका विरोध करने वाला  गुट  जिसने  नए विचारों को स्वीकार किया था महायान संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने बुद्ध की प्रतिमा बनाई और इश्वर की भांति उसकी पूजा प्रारंभ कर दी।  कनिष्क ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राजधर्म का दर्जा दे दिया।

हीनयान  और महायान में मुख्य अंतर

1. हीनयानी साधक अर्हन्त  पद को ही परम लक्ष्य मानते हैं। इस पद पर पहुंचने पर व्यक्ति संपूर्ण ज्ञान संपन्न हो जाता है।

महायान संप्रदाय के लोग बोधिसत्व की स्थिति को परम लक्ष्य मानते हैं।

हीनयान संप्रदाय में बोधिसत्व से तात्पर्य महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म  के रूप से है जबकि महायान संप्रदाय के अनुसार हर कोई व्यक्ति बोधिसत्व बन सकता है। उनके अनुसार बोधिसत्व वह व्यक्ति है जिसने ज्ञान प्राप्त कर लिया है परंतु वह निर्वाण  को इसलिए स्वीकार नहीं करता कि उसे अन्य व्यक्तियों के निर्वाण  हेतु प्रयत्न करना है। परोपकार के लिए वह स्वार्थ को भूल जाता है और मोक्ष का अधिकारी होने पर भी मोक्ष को स्वीकार नहीं करता है।

इस तरह से हीनयान संप्रदाय का आदर्श संकुचित है वह अपने निर्वाण  पर बल देते हैं जबकि महायान संप्रदाय का लक्ष्य लोक कल्याण है।

2. हीनयान संप्रदाय के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए भिक्षु बनना अनिवार्य है जबकि महायान संप्रदाय में भिक्षु  बनना आवश्यक नहीं है।

3. हीनयान अनीश्वरवादी  है वह बुद्ध  को ईश्वर के स्थान पर निर्वाण  प्राप्त एक साधारण व्यक्ति मानता है। महायानी बुद्ध  को ईश्वर का अवतार मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं।

4. हीनयान का मार्ग कठोर एवं जटिल है जबकि महायान व्यवहारिक है उसके सिद्धांतों में आवश्यकता अनुसार परिवर्तन किए जा सकते हैं।

5. हीनयान  संप्रदाय का साहित्य पाली भाषा में है जबकि महायान संप्रदाय का साहित्य संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध है।

6. हीनयान केवल महात्मा बुद्ध के धार्मिक सिद्धांतों में ही विश्वास रखता है जबकि महायानी महात्मा बुद्ध के अतिरिक्त बोधिसत्व की शिक्षाओं में भी विश्वास करते हैं।

7.  हीनयान में प्रतीकों के माध्यम से पूजा होती है जबकि महायान सम्प्रदाय में  बुद्ध  की मूर्ति की पूजा होती है।

बौद्ध धर्म की नई शाखा महायान के उदय के कारण बौद्ध धर्म का विकास तेजी से हुआ क्योंकि इसके सिद्धांत सरल थे जिनका पालन जनसाधारण गृहस्थ  जीवन में रहते हुए भी कर सकता था।

अन्य धर्मों के समान मूर्ति पूजा का प्रचलन होने से भी महायान धर्म की लोकप्रियता में बढ़ोतरी हुई। कनिष्क द्वारा महायान को राजधर्म घोषित करने के मध्य एशिया में थी इसका प्रचार हो गया।

बौद्ध धर्म की देन 

1. धर्म और दर्शन के क्षेत्र में : (i )जन सामान्य को पुरोहितवाद  से मुक्ति दिलाना (ii )मध्यम मार्ग का प्रतिपादन

2. सामाजिक संगठन के क्षेत्र में :

(i )जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था को खंडित कर आचरण को प्रधानता दी।

(ii )स्त्रियों को बौद्ध संघ में शामिल कर महिला स्वतंत्रता एवं समानता के सिद्धांत का प्रतिपादन।

3. साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में :

पालि ,संस्कृत आदि भाषाओं में साहित्य सृजन से इन भाषाओं का विकास हुआ।  बौद्ध  विहार और मठ शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे इनमें से नालंदा और विक्रमशिला विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

अश्वघोष ,नागार्जुन, वसुबंधु ,बुद्धघोष आदि बोद्ध आचार्यों ने साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में महान योगदान दिया था।

4. राजनीतिक क्षेत्र में योगदान :

राजाओं को  अहिंसा सिद्धांत को स्वीकार करा युद्ध का परित्याग कराने  हेतु भिक्षुओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

बौद्ध धर्मावलंबी शासकों ने जन कल्याण हेतु कार्य किए।

बौद्ध धर्म ने भारत में एक राष्ट्र की कल्पना को साकार करने में सहायता दी।

5.  कला के क्षेत्र में योगदान :

सांची,भरहुत ,अमरावती के स्तूप , बोधगया अजंता एलोरा की गुफाएं,चैत्य  और बौद्ध विहार कला  के क्षेत्र में बौद्ध धर्म की अनुपम देन है।

गांधार , मथुरा और सारनाथ की मूर्ति कला के विकास में भी बौद्ध धर्म का ही विशेष योगदान था।

6. आर्थिक क्षेत्र में योगदान:

 राजनीतिक क्षेत्र में शांति एवं सामाजिक संगठन में एकता से विभिन्न व्यवसायों  और वाणिज्य का काफी विकास हुआ।

एशिया के  अनेक देशों में बौद्ध धर्म प्रचार के कारण वृहत्तर भारत का निर्माण हुआ और उन सभी देशों के साथ भारत के आर्थिक संबंध स्थापित हुए।

7. वृहत्तर भारत का निर्माण:

बौद्ध धर्म के प्रचारको ने अपने अपूर्व साहस एवं समर्पण भाव के साथ भारतीय संस्कृति का प्रचार विभिन्न देशों में किया।  इन सभी देशों को सम्मिलित रूप से वृहत्तर भारत कहा जाता है।

अशोक ने विदेशों में बौद्ध धर्म प्रचारक भेजने की शुरुआत की थी।

    

बौद्ध धर्म के पतन के कारण

1. वैदिक  पुनरुत्थान :बौद्ध धर्म के निरंतर व्यापक प्रचार-प्रसार को देखकर ब्राह्मण धर्म के आचार्यों ने अपने धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के प्रयास से प्रारंभ कर दिए। ब्राह्मण आचार्यों ने अहिंसा  सिद्धांत को अपनाया। यज्ञ कर्म को सरल बना यज्ञ में बलि प्रथा पर जोर  देना कम कर दिया। अतः यह धर्म पुनः लोकप्रिय हो गया ,इससे बौद्ध धर्म का प्रभाव कम हो गया।

2. बौद्ध धर्म में जटिलताओं का प्रवेश :

 बौद्ध धर्म में कालांतर में प्रारंभिक सरलता और सुगमता के स्थान पर अनेक परंपरा और प्रथाओं का प्रवेश हो गया जो बौद्ध धर्म के मौलिक सिद्धांतों के विरुद्ध थी। इस कारण से बौद्ध धर्म के प्रति जन आकर्षण कम होने लगा।

3. भिक्षुओं का नैतिक पतन :कालांतर में बौद्ध संघ में सदाचार पूर्ण नैतिक जीवन का स्थान विलासिता पूर्ण जीवन ने ले लिया था। क्योंकि बौद्ध विहारों को मिलने वाले दानों से वहां काफी संपत्ति एकत्र हो रही थी। इस विलासिता के कारण बौद्ध संघ अलोकप्रिय होने लगे।

4. बौद्ध धर्म में विभाजन :अशोक के समय तक 18 संप्रदाय बौद्ध धर्म में उत्पन्न हो गए थे और कनिष्क के समय बौद्ध धर्म का हीनयान और महायान इन दो संप्रदायों में विभाजन हो गया। इससे संघ  में दिखने वाला मतभेद जनता के सामने आया तो आम  लोगों में बौद्ध धर्म के प्रति अविश्वास पैदा होने लगा।

5. राज्याश्रय  का अभाव: सातवीं के बाद बौद्ध धर्म को राज्याश्रय  मिलना बंद हो गया। क्षेत्रीय राजाओं द्वारा बौद्ध धर्म को राजधर्म बनाने के उल्लेख हालांकि बाद में भी मिलते हैं लेकिन व्यापक राज्याश्रय  के अभाव में बौद्ध धर्म का लोप  होने लगा।

6. ब्राह्मण धर्म के प्रभावी प्रचारकों का उदय :आठवीं  व नवी सदी में अनेक संतों और साधकों ने ब्राह्मण धर्म को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। कुमारिल भट्ट ,शंकराचार्य ,रामानुजाचार्य ,रामानंद ,निंबार्काचार्य आदि संतों ने अपने प्रभावी व्यक्तित्व के द्वारा जनसाधारण को ब्राह्मणवादी पौराणिक धर्म की ओर आकृष्ट किया। अतः बौद्ध धर्म का प्रचार सीमित होता गया।

7. राजपूत राज्यों का उदय :

हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में निरंतर राजपूत राज्यों का शासन रहा। राजपूत राजाओं ने अहिंसा के सिद्धांतों को मानना अपने क्षत्रियोचित गुणों के विपरीत समझा। अतः उन्होंने बौद्ध धर्म को आश्रय प्रदान नहीं किया बल्कि पौराणिक धर्म की पुनर्स्थापना में सहयोग दिया।

8. आक्रमणकारियों और अत्याचारों का सामना:      

छठी सदी में मिहिरकुल हूण  द्वारा अनेक बौद्ध मठों का ध्वंस किया गया था। सातवीं सदी में शशांक  ने बोधगया के बोधिवृक्ष को नष्ट कर दिया था।

लेकिन यह अत्याचार पतन का प्रधान कारण नहीं था। अत्यंत महत्वपूर्ण कारक था निरूपित हिंदू धर्म का उदय ,जिसका तमिल देश से उत्तर की ओर 9 वीं सदी के बाद प्रचार हुआ था।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें