गुरुवार, 16 मार्च 2023

मुगलकाल में भूराजस्व व्यवस्था

 

मुगलकाल में भूराजस्व व्यवस्था

मुगल काल में लगान फसल पर लगता था, जबकि बाद मे अंग्रेजीकाल में भूराजस्व को जमीन के लगान के रूप में वसूल किया गया था, अतः मुगल भूराजस्व व्यवस्था अंग्रेजी व्यवस्था से भिन्न थी।

मुगल काल में भूराजस्व के लिए 'फारसी शब्द 'माल' और माल वाजिव शब्द का प्रयोग हुआ था। खराज शब्द का प्रयोग नियमित रूप से नहीं होता था।

बाबर और हुमायूँ के समय मे भूराजस्व व्यवस्था में कोई व्यवस्थित सुधार नहीं किया जा सका था। बाबर के समय में संपूर्ण भूमि को जागीरों में बाँट दिया गया था। और हुमायूँ ने शेरशाह द्वारा स्थापित सुव्यवस्थित लगान व्यवस्था के स्थान पर परम्परागत जागीरदारी व्यवस्था को पुनः स्थापित किया था।

लेकिन अकबर ने भूराजस्व व्यवस्था के महत्व को समझ उसे व्यवस्थित रूप दिया था। अकबर द्वारा स्थापित राजस्व प्रणाली का मूल ढाँचा शेरशाही व्यवस्था से लिया गया था।

=> शेरशाह ने भूमि की पैमाइश पर आधारित जब्ती (नकद) प्रथा अपनाई थीं। उसने तीन श्रेणियों की भूमि की औसत उत्पादकता का 1/3 कर के रूप में निर्धारित कर रे (राई) प्रणाली अपनाई थी।

अकबर ने शेरशाह की व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण सुधार भूमि के वर्गीकरणे क्षेत्र में किया। भूमि चार श्रेणियों में विभक्त की गई –

(1) पोलज - जिस पर हर वर्ष खेती होती है।

(2) परती (पड़ती), इस प्रकार की भूमि में एक वर्ष के अंतर पर खेती की जाती थी।

(3) चाचर - वैसी भूमि को चाचर कहा जाता था जिसमें दो से चार वर्ष तक खेती नहीं की जाती थी।

(4) बंजर -पांच वर्ष या उससे अधिक समय तक काम नहीं लाई गई भूमि बंजर भूमि कही जाती थी।

 खेती में चाचर और बंजर भूमि पर रियायती दरों से लगान निर्धारण होता था।

किसी भी सुव्यवस्थित कर प्रणाली की तरह मुगलकालीन भूराजस्व की वसूली की प्रक्रिया दो चरणों में पूरी होती थी। प्रथम कर का निर्धारण (तखशीस जमा) तथा द्वितीय वास्तविक वसूली (हासिल ) |

भूराजस्व का निर्धारण करने के बाद राज्य द्वारा एक दस्तावेज जारी किया जाता था जिसे पट्टा, कौल, करार के नाम से जाना जाता था। जिसमें किसानों द्वारा देय राजस्व मांग की दर का उल्लेख होता था।

इसके साथ-साथ किसान को कबूलियत देनी पड़ती थी कि उसे यह निर्धारण मंजूर है और वह कब तथा कैसे भुगतान करेगा।

अकबर के सिंहासनारोहण के समय तक शेरशाह द्वारा स्थापित राजस्व व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई थी। शेरशाह की जब्ती (नकदी) व्यवस्था का स्थान बँटाई ने ले लिया था और किसानों को अपनी उपज का आधा भाग राज्य को देना पड़ता था।

वास्तविक हासिल बहुत कम थी और इस कारण जमा के ऑकडे असत्य नजर आने लगे थे। अतः राज्य की आय के साधनों को नियमित करने एवं राज्य की वास्तविक आय के ज्ञान के लिए नवीन बंदोबस्त करना आवश्यक था।

इस कार्य के लिए अकबर ने अपने शासन के प्रारंभ में जब्ती व्यवस्था को अपनाया। यद्यपि अकबर और उसके बाद के शासकों के काल में अन्य प्रणालियाँ भी चालू रही थी।

जब्ती व्यवस्था

यह मुगल कालीन राजस्व निर्धारण की सबसे महत्वपूर्ण प्रणाली थी। जब्त शब्द जरीब (एक नाप) का समरूप है।

जब्ती व्यवस्था की शुरुआत शेरशाह के शासनकाल से मानी जाती है, अकबर के काल में कई परिवर्तनों के बाद उसने अंतिम रूप ग्रहण किया था। अकबर के शासन के प्रारंभिक वर्षों में शेरशाह द्वारा निर्धारित 'राई' को स्वीकार कर लिया गया था, लेकिन इस प्रणाली में एक त्रुटि यह थी कि विभिन्न प्रांतों में लगान को नकदी में वसूल करने के लिए गल्ले की कीमतें एक समान ही रखी गई थी। जो कि अव्यावहारिक थी । इससे कई वर्षों से तक लगान भी एक सी मात्रा में ही प्राप्त होता रहा था।

इसके अलावा अब्दुल मजीद आसफ खाँ, जिसे 1560 में वित्तमंत्री नियुक्त किया गया था, ने सरदारों को प्रसन्न करने हेतु उनकी जागीरों की आय को बढ़ा-चढ़ा कर बताया था, जिससे राज्य ,जागीरदार व प्रजा में से किसी को लाभ नहीं था, लेकिन हानि जरूर होती थीं।

अकबर के काल में लगान व्यवस्था को सुधारने का कार्य दीवान मुजफ्फरखाँ ने शुरू किया, जिसे 1564 में दीवान बनाया गया था। उसने भूराजस्व की दरों को व्यवस्थित करने और विश्वस्त भू-आँकडों को एकल करने के प्रयास किए

 उसने राज्य की वास्तविक लगान से आय का पता लगाने हेतु दस कानूनगों नियुक्त किए। इन्होंने स्थानीय कानूनगों के लेखों के आधार पर आय का लेखा-जोखा तैयार किया जो जमाई हल हासिल पुकारा गया। लेकिन यह पूर्णत: सही नहीं था क्योंकि इसमें उत्पादन का मूल्यांकन नहीं किया गया था।

लेकिन इससे एक परिवर्तन अवश्य हुआ कि  1565-66 और उसके बाद हर साल प्रत्येक फसल की नई स्थानीय दरें तय की जाती( गल्ले की कीमत) अथवा हर स्थान की राई बदल जाती थी।अर्थात् अब यह निश्चित किया गया कि विभिन्न स्थानों पर गल्ले की जो कीमत होगी उन्हीं के आधार पर किसान नकद रूप से लगान देंगे। और गल्ले  की कीमत प्रतिवर्ष तय की जाएगी। इस प्रणाली को जाब्ती  ए हरसाला कहा गया।

लेकिन प्रतिवर्षीय फसल दरों को नकदी में परिवर्तन करने के कारण किसानों की कठिनाइयों खूब बढ़ गई थी। अबुल फजल के अनुसार साम्राज्य काफी विस्तृत हो चुका था, और इस तरह स्थानीय कीमतों की सूची दरबार में भेजकर उसी वर्ष स्वीकृति प्राप्त करने में बहुत देर हो जाती थी। स्वीकृति की प्रतीक्षा किए बिना, फसल की वसूली का समय आ जाने के कारण स्थानीय अधिकारी संभावित दरों से लगान वसूल कर देते थे। अत: किसानों की शिकायत रहती थी उन से बाद में स्वीकृति प्राप्त दरों से अधिक वसूलकर लिया गया, अथवा कभी कभी जागीरदार की शिकायत बकाया भूराजस्व के विषय में रहती थी। भ्रष्ट लोग कीमतों के असत्य आँकड़े भी भेजते थे।

ऐसी परिस्थितियों में 1566 ई. में खालसा भूमि के दीवान शिहाबुद्दीन अहमद की सिफारिश पर मुजफ्फरखाँ के प्रयोग के स्थान पर नश्क व्यवस्था को आरंभ किया गया जिसके अनुसार पैदावार का अनुमान लगाकर लगान वसूली जाने लगी। लेकिन 1570 में जब मुजफ्फर खाँ को पुन: दीवान नियुक्त किया गया तो 'जाब्ता ए हरसाला' को पुनः लागू कर दिया गया लेकिन इस बार भूमि की पैमाइश के अलावा पैदावार का सही पता लगाने की व्यवस्था भी की गई।

इसी दौरान अकबर ने गुजरात विजय के बाद टोडरमल को वहां सर्वेक्षण एवं नवीन जमा के मूल्यांकन का कार्य सौंपा और 6 महीने के भीतर टोडरमल ने गुजरात में राजस्व बंदोबस्त की व्यवस्था को काफी व्यवस्थित कर दिया, यहां अपनाए गए उसके तरीके ही बाद में आइने दहसाला के आधार बने।

इसी समय अकबर ने 1574-75 में परम्परागत स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों (परगना) को समाप्त कर अपने साम्राज्य को (बंगाल, बिहार और गुजरात को छोड़कर) 182 कृत्रिम इकाइयों में विभक्त कर दिया, जिसमें से प्रत्येक की आय एक करोड़ दाम (2.5 लाख ₹) थी और इन इकाइयों पर आमिल (करोड़ी) नामक अधिकारियों (182) को नियुक्त कर दिया। उसका मुख्य काम अपने क्षेत्र से एक करोड़ दाम का राजस्व एकत्र करना था। संपूर्ण जागीर भूमि को इसी समय खालसा में परिवर्तित करने का प्रयास किया गया, लेकिन यह परिवर्तन सफल नहीं हुआ लेकिन आमिल का पद बाद के काल में भी बना रहा।

 अकबर ने अपने शासनकाल के 24वे वर्ष (1580) में आईने दहसाला' नामक नई व्यवस्था शुरुआत की, जिसे टोडरमल बंदोबस्त' भी कहा जाता है।

इस प्रणाली के तहत पिछले दस (दह) साल के दौरान अलग-अलग फसलों की औसत उपजों और उनकी औसत कीमतों का हिसाब लगाया गया। औसत उपज का एक तिहाई भाग राज्य का हिस्सा तय किया गया। राजस्व का भुगतान नकद के रूप में करने की व्यवस्था की गई। इसके लिए पिछले दस सालों की औसत कीमतों की अनुसूची के आधार पर उपज में राज्य के हिस्से को नकद  में तय कर दिया गया। इस प्रकार राज्य के हिस्से में आने वाली प्रति बीघा जमीन की उपज 'मन' में बताई गई, लेकिन औसत कीमतों के आधार पर राज्य का हिस्सा प्रति बीघा रूपये में तय किया गया। (इस तरह जो अंतिम नकद दर ( दस्तूर) तय की गई उसे अमलदस्तूर के नाम से जाना गया)।

 बाद में इस व्यवस्था में और भी सुधार किया गया। हिसाब मे स्थानीय कीमतों का ध्यान रखा गया। इतना ही नहीं, एक ही किस्म वाले अलग-अलग परगनों को भी पृथक् राजस्व निर्धारण हलको में समूहबद्ध कर दिया गया। इस प्रकार किसान को न केवल स्थानीय उपज के आधार पर बल्कि स्थानीय कीमत  के भी आधार पर राजस्व अदा करना पड़ता था।

भूमि की नाप के लिए अभी तक जूट की रस्सियों (मूंज की रसियो, जिसे तनब कहा जाता था) का प्रयोग होता था, जो मौसम के प्रभाव से घट या बढ जाती थी। इसके स्थान पर बाँस की जरीब का (लग्गो) का प्रयोग किया गया, जिसके टुकडे लोहे की पत्तियों से जुड़े हुए थे।  जरीब का प्रयोग करने वाला अकबर प्रथम शासक था)।

। कृषियोग्य भूमि को चार भागों में बाँटा गया था -पोलज , परती, चाचर और बंजर | किसानों को भूमि का स्वामी स्वीकार किया गया था और राज्य ने किसानों से सीधा संपर्क स्थापित किया था। इस प्रकार शेरशाह की भाँति यह व्यवस्था भी रैयतवाड़ी थी। लगान के लिए किसानों को पट्टे दिए जाते थे, जिसमें उनकी भूमि का विवरण होता था किसानों से कबू‌लियत भी लिखवाई जाती थी।

कृषि में सुधार हेतु समय-समय पर किसानों को सहायता दी जाती थी और आपदा काल में लगान कम या माफ कर दिया जाता था।

NOTE 1. इस प्रणाली में यद्यपि कर का निर्धारण पिछले दस वर्षों के उत्पादन और प्रचलित, मूल्यों के आधार पर किया जाता था, लेकिन इसका 1/10 भाग हर साल वसूला जाता था जिसे 'माल ए हरसाला' कहा जाता था।

दहसाला प्रबंधन जब्ती प्रथा या नकदी ( पैमाइश और गल्ले की किस्म के आधार पर लगान तय करना) का ही विकसित रूप था, लेकिन सभी प्रांतों में इस व्यवस्था लागू किया जाना संभव नहीं था। अकबर ने इस प्रणाली को लाहौर से इलाहबाद तक और मालवा तथा गुजरात में लागू किया था। सिंघ, काबुल के कुछ  भाग, कांधार और कश्मीर, बंगाल आदि स्थानों पर अन्य प्रणालियों का प्रचलन था।

लाभ

अकबर की इस लगान व्यवस्था में किसान प्रसन्न और सुखी थे। उनका लगान निश्चित था। पैदावार या गल्ले की कीमत बढ़ने से जो अतिरिक्त लाभ होता था, वह उन्हीं को मिलता था क्योंकि राज्य लगान में वृद्धि नहीं करता था। दूसरी तरफ इससे किसानो को कृषि सुधार हेतु प्रोत्साहन मिला। इसके अलावा किसानों को यह भी सुविधा थी कि उनकी फसले नष्ट होने या उनकी हानि होने पर लगान कम या माफ किया जा सकता था।

किसानों से राज्य का प्रत्यक्ष संपर्क था और यहां तक कि जमींदारों की भूमि की देखभाल भी शाही कर्मचारियों के हाथ में थी। इससे बहुत बड़े क्षेत्र में जागीरदार या जमींदार जैसे शोषण करने वाले वर्ग नहीं थे। इससे किसान सम्पन्न हुए। कृषि की उन्नति हुई तथा व्यापार और उद्योगों को बढ़ावा मिला। इससे राज्य को भी लाभ मिला।

 

दोष -- कुछ ब्रिटिश इतिहासकारों ने अंग्रेजी काल की लगान व्यवस्था को  श्रेष्ठ बताने के उद्देश्य से अकबर की लगान व्यवस्था में कुछ दोष भी बताए हैं। उनके अनुसार लगान कर्मचारी भ्रष्ट थे और किसानों से लगान काफी अधिक मात्रा में लिया जाता था। लेकिन ये आरोप बेबुनियाद है।

भ्रष्टाचार थोड़ा बहुत हो प्रत्येक समय में रहता ही है उसे पूर्णतया समाप्त करना  असंभव हैं। लगान के अधिक होने की बात भी गलत है। पैदावार का 1/3 भाग मध्ययुग में न्यूनतम माना जाता था। शेरशाह जो किसानों की भलाई के लिए बहुत प्रयत्नशील था, पैदावार के 1/3 भाग के अलावा जरीबाना, मुहासिलाना और सुरक्षा कर भी लेता था। जबकि अकबर ने 1/3 भाग के अतिरिक्त अन्य सभी करो को हटा था। इस कारण किसानों पर कर का भार अधिक नहीं था।

 

Note -1, यद्यपि दहसाला बंदोबस्त दस साल के लिया किया गया, लेकिन राज्य कभी भी इसमें परिवर्तन कर सकता था। लेकिन कुछ परिवर्तनों के साथ यह व्यवस्था सत्रहवी सदी के अंत तक मुगल- भूराजस्व प्रणाली का आधार बनी रही।

2. आइने दहसाला को शाहजहाँ के शासनकाल में दक्षिण भारत में मुर्शिद कुलीखां ने लागू किया था, इस कारण उसे दक्षिण भारत का टोडरमल भी कहा जाता है।

 

अकबर के अधीन राजस्व निर्धारण की और भी प्रणालियों का इस्तेमाल किया जाता था। सबसे आम और सबसे प्राचीन प्रणाली का नाम था बंटाई गल्ला बक्शी । इस प्रणाली में उपज निर्धारित अनुपात में किसानों और राज्य के बीच बाँट दी जाती थी। फसल दौनी के बाद (अनाज को निकालने के बाद - रास बंटाई) या काट कर गट्ठर बाँधने के बाद (लाग बंटाई) अथवा जब खेत में खड़ी से ( खेत बटाई) उसी समय बाँट दी जाती थी। लेकिन इसके लिए फसल की कटाई के समय या उसके पकते समय ईमानदार सरकारी अमलो की एक पूरी फौज की मौजूदगी की जरूरत रहती थी। जब औरंगजेब ने दक्कन में  यह व्यवस्था लागू की थी, जो केवल फसल की निगरानी की व्यवस्था  के कारण राजस्व वसूली की लागत दुगुनी हो गई थी।

 

अकबर के अधीन प्रचलित एक तीसरी पद्धति का नाम  नसक (नस्क ) था। यह किसान द्वारा अतीत में अदा किए गए लगान के आधार पर मौजूदा देनदारी के बारे में लगाया गया मोटा हिसाब होता था (इसे किसी भी प्रकार के राजस्व निर्धारण या वसूली प्रणाली में अपनाया जा सकता था। [नस्क ए जब्ती / नस्क ए गल्लाबक्शी) औरंगजेब के काल में आमतौर पर नस्क की पद्धति को ही अपनाया गया था।

राजस्व  के एक मुश्त निर्धारण की एक और पद्धति कनकूत थी जिसे नस्क का ही एक प्रकार माना गया है।

कुछ इलाको में राजस्व निर्धारण हेतु इजारा (ठेके की प्रथा का भी प्रचलन  था। यद्यपि नियमत: मुगलो ने इसे स्वीकार नहीं किया था परन्तु व्यवहार में कभी कभी गाँवों को इजारे या ठेके पर दिया जाता । शाहजहाँ के काल में इसका विकास हुआ था। इससे शासन व्यय में तो कमी आई परन्तु किसानों का शोषण बढ गया

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