कहा जाता हैं कि अंग्रेजों ने भारत का साम्राज्य मुगलों से नहीं
बल्कि मराठों से प्राप्त किया था, क्योंकि 18वी सदी में मराठे ही भारत की
सर्वश्रेष्ठ शक्ति थी। औरंगजेब के शासनकाल में मराठा, सिख "और जाट जैसे
समुदायों ने मुगलों की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया था लेकिन मराठे लोग, शीघ्र ही
पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर छा गए और वे इतने शतिशाली हो गए कि उन्होंने स्वयं मुगल
बादशाह को ही दक्कन में पराजित कर दिया और उत्तर मुगलकाल में भी राजनीति के प्रमुख निर्धारक तत्व के रूप में उपस्थित रहे।
मराठों का उदय
दक्षिण पश्चिम भारत का वह भाग जो पश्चिम में अरब सागर से लेकर उत्तर
में सतपुड़ा पर्वत तक फैला है और जिसमें आधुनिक, मुम्बई, कोकण, खानदेश, बरार व मध्य भारत का कुछ भाग और हैदराबाद
आंध्र प्रदेश का कुछ भाग शामिल है। मराठवाड़ा' के नाम से जाना जाता था और यहीं पर
मराठा शक्ति का उदय हुआ था।
मराठे अनेक कृषक, और उनसे संबद्ध जातियों के सम्मिश्रण थे। लेकिन
सेना में सेवा करने की परम्परा के कारण उनको जमीन प्राप्त हुई थी, इसलिए वे अन्य कृषक समुदायों से अलग थे। इन प्रारंभिक
मराठों ने बहमनी राज्य तथा उत्तरवर्ती राज्यों की सेवा करते हुए अपनी स्थिति को
मजबूत बनाना प्रारंभ कर दिया' था।
इब्राहिम आदिलशाह जैसे बीजापुर के शासक दक्कनी (भारतीय मुसलमान) और अफाकी
(अरब तथा मध्य एशिया से नए-नए आए प्रवासी) लोगों से संतुलन बनाए रखने के लिए
मराठों को ज्यादा पसंद करते थे। चूंकि इस काल में पुर्तगालियों के पश्चिमी तट पर
अधिकार के कारण अरब और ईरान से प्रवजन बंद हो गया था और मुगलों ने उत्तर से आने
में रोक लगा दी थी। इसलिए बीजापुर के सुल्तानों ने स्थानीय हिन्दुओं को बड़ी
संख्या में सेवा तथा प्रशासन में भर्ती किया था, जिनमें मराठों का प्रमुख स्थान
था। (मराठों के अतिरिक्त उन्होंने लिंगायत,
देशस्थ ब्राह्मणों तथा प्रभुओं को भी नौकरी में रखा था ) इस प्रकार शिवाजी के
उत्कर्ष से पूर्व ही मरठा शक्ति के विकास की पूर्ण पृष्ठभूमि बन गई थी और मराठों
के कई प्रभावशाली भू सम्पन्न परिवारों का
उदय हो चुका था। लेकिन राजपूतों की तरह उनका राज्यों पर शासन नहीं था और विकास की
इस कमी को पूरा करने का प्रयास शाहजी भोंसलें तथा
उनके पुत्र शिवाजी ने किया ।
यहां यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि मराठों का उत्कर्ष किसी
व्यक्ति या किसी विशेष व्यक्ति समूह का कार्य नहीं था
और न ही यह किसी विशेष समय में उत्पन्न हुई कुछ अस्थायी परिस्थितियों का ही परिणाम
था। यह तो दो सौ वर्षो की क्रमिक गतिविधियों एवं विविध कारकों का परिणाम
था जिसने वहां की जनता में छिपी शक्ति और चेतना को जागृत कर दिया था। मराठों के उदय(कारण) को आरंभिक इतिहासकारों ने
मराठवाड़ा क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियों,
औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों और उसके परिणामस्वरूप हिन्दू जागरण, भक्ति आंदोलन के मराठा संत कवियों का धार्मिक आंदोलन -
जिसने मराठो के गौरव को जगाने के साथ ही घृणित जाति प्रथा पर भी वार किया और
सर्वोपरि शिवाजी के चमत्कारिक व्यक्तित्व के परिप्रेक्ष्य में देखा है।
(1) भौगोलिक परिवेश:
M.G. रानाड़े की
पुस्तक Rise of the Maharatha power' में मराठवाड़ा
की भौगोलिक परिस्थितियों एवं प्राकृतिक परिवेश को मराठों के उदय का एक प्रमुख कारक
बताया गया है।
महाराष्ट्र प्रदेश दो तरफ से महान पर्वत
श्रृंखलाओं से घिरा हुआ है-उत्तर से दक्षिण तक सहयाद्रि पर्वत मालाएँ और पूर्व से
पश्चिम तक सतपुड़ा और विंध्य पर्वत श्रेणिया इसको घेरे हुए है। इन पर्वत श्रेणियों के
कारण उत्तर भारत से कोई आक्रमणकारी इस क्षेत्र में आसानी से आक्रमण नहीं कर सकता
था तथा पश्चिम में घाट और अरब सागर की स्थिति से वह इस तरफ से भी सुरक्षित था।
इसके अलावा ऊबड़-खाबड़ इन दुर्गम पहाडियों ने क्षेत्र को सामरिक रूप से महत्वपूर्ण
किलाबद्ध क्षेत्र बना दिया था। जिहां पर किले बनाकर मराठा लोगों ने अपने शत्रुओं
के दाँत खट्टे करने में सफलता प्राप्त की। इसके अलावा कम उपजाऊ पठारी भूमि वाले इस क्षेत्र में रसद का अभाव और आम
जीवन की सुविधाओं का अभाव हमेशा बना रहता था, जिसके कारण बड़ी सेना के साथ
आक्रमणकारी वहा पर टिक नहीं सकता था। ་
कम ऊपजाऊ, पठारी भूमि और प्राकृतिक
कठिनाइयों ने इन लोगों को मेहनती, कठोर और लड़ाकू भी बना दिया था। इन विपरीत
परिस्थितियों के कारण मराठे आजीविका हेतु पडोस के उर्वर क्षेत्रों में लूटमार करने
के लिए बाध्य हुए और इन लूटमार के अभियानों ने मराठों में सैनिक प्रतिभा के लिए
अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की तथा उनमें छापामार युद्ध कला का विकास हुआ और यही
छापामार - गुरिल्ला पद्धति अंतत: मुगलों के खिलाफ उनके उदय में एक महत्वपूर्ण कारक
के रूप में सिद्ध हुई थी।
इसके अलावा इन दुरुह भौगोलिक परिस्थितियों
के कारण मराठों में एकता और स्वतंत्रता की भावना का भी विकास हुआ।
(2) क्या मराठा उदय औरंगजेब की धार्मिक
कट्टरता का परिणाम था ? जदुनाथ सरकार, जी. एस. सरदेसाई और एम. जी. रानाडे जैसे
इतिहासकारों की धारणा हैं कि मराठा उत्थान औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीति का
परिणाम था। इन विद्वानों का कहना है कि शिवाजी ने हिन्दू पदपादशाही अंगीकार की थी,
गाय और ब्राह्मणों की रक्षा का व्रत लिया
था और साथ ही ' हिन्दुत्व धर्मोद्धारक’ की उपाधि भी धारण की थी। इसके अलावा विद्वानों
के अनुसार शिवाजी द्वारा जयसिंहसे मैत्री संबंध हिन्दुत्व के पुनरुत्थान की लहर का
ही प्रतीक था।
परन्तु सतीशचंद्र ने चार आधारों पर इन
तर्कों का खंडन किया है। एक तो यह कि मराठा शक्ति के विस्तार के पहले चरण में मुगल
साम्राज्य पर शाहजहां का शासन था और यह ऐसा समय था जब आम तौर पर मुगलों द्वारा
धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई गई थी। ऐसी स्थिति में मराठा शक्ति के उदय को
औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों का परिणाम मानना तर्कसंगत नहीं है। दूसरे -
मराठा इतिहास के आरंभिक चरण में संघर्ष मराठों और दक्षिणी सल्तनतों के बीच रहा था
और उसमें मुगल काफी बाद में शामिल हुए थे। वस्तुत अधिकांश मराठा परिवारों ने
दक्षिणी सुल्तानों का कृपापात्र बनकर ही समृद्धि और प्रसिद्धि प्राप्त की थी। शिर्के,
मोरे, निम्बालकर, घोटगे, घोरपडे, जाधव यहां तक कि शाहजी भोंसले भी ऐसे ही
कृपापात्रों में थे। इस तथ्य को देखते मुस्लिम विरोध में उदय का तर्क निरर्थक
प्रतीत होता है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिवाजी ने
महाराष्ट्र में या बाहर हिन्दुओं के कल्याण के लिए कोई विशेष कार्य भी नहीं किए
थे। यहां तक कि जब सूरत पर हमला किया गया था तो हिन्दू और मुसलमान दोनों को समान
रूप से लूटा गया था। और इससे भी बढ़कर बात यह थी जिसे हिन्दू पुनर्जागरण का नायक
बताया जाता है. उसे ब्राह्मणों ने राजसिंहासन के लायक भी नहीं माना था। जहाँ तक,
'हिन्दू धर्मोद्धारक की पदवी धारण करने की बात है तो यह उस समय कोई नवीन प्रकृति
नहीं थी।
(3) क्या मराठों का उदय राष्ट्रीय संघर्ष के
रूप में हुआ था?
MG रानाडे ने
मराठो के उदय को विदेशी शासन के खिलाफ राष्ट्रीय संघर्ष के रूप में देखा था। लेकिन
यह मत विवादास्पद है क्योंकि अगर मुगल विदेशी थे तो उतने ही विदेशी गोलकुंडा और
बीजापुर के शासक भी थे। अगर मराठे एक शक्ति का आधिपत्य स्वीकार कर सकते थे तो
दूसरे का क्यों नहीं?
(4) सामाजिक और
आर्थिक तत्वों की भूमिका एवं महाराष्ट्रधर्म :
महाराष्ट्र में लम्बे समय से धन सम्पदा का अभाव
रहा था, जिसके परिणामस्वरूप वहां के समाज में जाँति -पाँति, ऊँच-नीच और गरीब अमीर
के बीच कोई दरार नहीं थी। मराठा समाज में जातिगत वर्गीकरण कम था और थोड़ा बहुत जो
जातिगत प्रभाव था वह भक्ति आंदोलन के प्रभाव से कम हो गया था।
महाराष्ट्र के भक्ति आंदोलन ने मराठा के उदय
के वैचारिक और बौद्धिक आधार का कार्य किया था। भक्ति आंदोलन ने मराठों पर व्यापक
प्रभाव डाला | महाराष्ट्र में संत ज्ञानेश्वर हेमाद्रिचक्रधर एकनाथ, तुकाराम,
रामदास और वामन पंडित जैसे सुधारको ने मराठों में नवीन चेतना का संचार किया। इन
लोगो ने देवता की भक्ति, चारित्रिक उत्कृष्टता और सामाजिक एकता पर बल दिया।
सामाजिक कुरीतियों को मिटाने और सबके साथ समान व्यवहार करने का उपदेश दिया और
मराठों में प्रेम और गौरव की भावना का संचार किया और जनसाधारण की मराठी भाषा का
प्रयोग करते हुए हिन्दू धर्म और सांस्कृतिक पुनःस्थापन की बात भी की।
भक्ति आंदोलन से उत्पन्न इस तीव्र जागृति को
'महाराष्ट्र धर्म' के रूप में जाना जाता है। M.G. रानाड़े आदि
इतिहासकारों के अनुसार मराठों की राजनीतिक स्वतंत्रता 'महाराष्ट्र धर्म का ही
परिणाम थी। महाराष्ट्र धर्म की सर्वप्रथम चर्चा 15 वीं सदी की रचना गुरूचरित में
मिलती है, किन्तु यहां इसे एक महान प्रबुद्ध राज्य की एक, नैतिक नीति के संदर्भ
में उल्लेखित किया गया है। इसे राजनीतिक मोड़ देने का श्रेय 17वीं सदी के संत कवि
रामदास को जाता है: जिन्होंने तुर्की, अफगान - मुगल
शासन के खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए थे। शिवाजी ने इसका लाभ उठाया। उन्होने
महाराष्ट्र धर्म' के वैचारिक व्यक्तव्य का उपयोग दक्खनियों और मुगलों के खिलाफ
किया।मराठों की धार्मिक निष्ठा तुलजा भवानी, बिठौवा और महादेव के प्रति थी और इस
निष्ठा का प्रयोग राजनीतिक क्षेत्र में करने का प्रयास किया गया। ‘हर-हर महादेव’
का युद्ध नाद मराठा किसानों के हृदय को छू जाता था।
परन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है"
मुस्लिम प्रभुत्व के खिलाफ हिन्दू शत्रुता मध्यकालीन राजनीतिक परिदृश्य का न तो
प्रमुख प्रेरक कारक ही था और न ही कोई उल्लेखनीय तत्व | परन्तु उपर्युक्त वैचारिक पृष्ठभूमि ने मराठों के विस्तार के
आरंभिक चरण में किसानो को इकट्ठा करने में 'मनोवैज्ञानिक सबल' की भूमिका निभाई थी।
साथ ही इसने मराठो को एक सांस्कृतिक पहचान बनाने में भी मदद की थी।
(5) मराठी भाषा और साहित्य का विकास
मराठी भाषा के विकास ने भी मराठो के बीच
एकता की भावना को बढावा दिया था।
मराठा संतों के साहित्यिक योगदान से
सांस्कृतिक चेतना का उदय भी हुआ। मराठा साहित्य में समाहित वीररस के गीतों ने देश
प्रेम की भावना को बढ़ाने में भी योगदान दिया।
(6)
दक्षिण सुल्तानों के अधीन प्रशासनिक और राजनीतिक अनुभव की प्राप्ति:
अपने सैनिक गुणों के कारण मराठों ने
पर्याप्त प्रशासनिक एवं राजनीतिक अनुभव प्राप्त कर इसका लाभ उठाया। बहमनी
साम्राज्य के पतन के बाद अनेक मराठे अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुंडा राज्यों में
महत्वपूर्ण पदों पर पहुँच गए। मलिक अंबर ने अहमदनगर राज्य में मराठा सैनिकों को
बड़ी संख्या में नियुक्त किया। उनकी सहायता से उसने मुगलों को काफी परेशान किया
था। शाहजी भोसले ने शाहजहा के काल में मुगल सेवा में भी स्थान प्राप्त कर लिया।
उसे पांचहजारी मनसब और पूना की जागीर दी गई। इस प्रकार विभिन्न स्थानों पर कार्य
करते हुए मराठों को दक्षिण भारत की राजनीति को समझने में काफी आसानी हुई जिसका फायदा उन्होने मराठों को संगठित करने में उठाया।
(4) शिवाजी का कुशल नेतृत्व:
शिवाजी एक सेनानायक होने के साथ ही एक महान
राष्ट्र निर्माता भी थे। सत्रहवी सदी में महाराष्ट्र की भाषा, धर्म, विचार और जीवन में एक
आश्चर्यजनक एकता और समानता की सृष्टि हुई
थी, केवल राष्ट्रीयताकता की कमी थी, जिसे शिवाजी ने पूरा कर दिया।
NOTE: शिवाजी के गुरू समर्थ रामदास ने अनेक मठो की स्थापना कर एवं 'दासबोध'
नामक ग्रंथ की रचना कर मराठों में नवचेतना का संचार किया था।
NOTE 2 मुगलों द्वारा दक्षिण भारत की विजय की संभावना ने भी मराठो को एक
होकर मुगलो से संघर्ष करने की ओर उन्मुख
किया था।
3. मराठा इतिहास का सबसे
महत्व पूर्ण ग्रंथ 1694 ई. में सभासद द्वारा लिखित ''शिवाजी की जीवनी' (बखर) है।
मराठा एवं शिवाजी
दक्षिण के मराठों को बीजापुर और अहमदनगर के राज्यों में महत्वपूर्ण
स्थान प्राप्त हुए थे। शिवाजी के उत्कर्ष से पूर्व कम से कम आठ मराठा परिवार ऐसे
थे जिनका दक्षिण की राजनीति में काफी प्रभाव था। इनमें स्वयं शिवाजी के पिता शाहजी
भोंसले अहमदनगर के एक प्रभावशाली सरदार थे और शासकों को बनाने वालों में से एक थे।
उन्होंने अहमदनगर के पतन के बाद 'अल्पवयस्क
शासक की ओर से काफी समय तक मुगलों से संघर्ष किया था। 1630 ई. में शाहजी मुगल सेवा में भी पहुँच गए और
उन्हें 6000/5000 का मनसब भी दिया गया था
और शाहजहाँ ने उन्हें पूना की जागीर भी प्रदान की थी।
परन्तु 1632 ई में शाहजी बीजापुर के पक्ष में चले गए और 1634ई तक
उन्होंने निजामशाही राज्य के एक चौथाई भाग पर कब्जा भी कर लिया, लेकिन मुगल आक्रमण
और बीजापुर द्वारा पराजित होकर संधि करने से यह सब कुछ शाहजी के हाथ से निकल गया।
बाद में कर्नाटक के एक अभियान में शाहजी के योगदान से खुश होकर
बीजापुर के सुल्तान मुहम्मद अली आदिलशाह ने उन्हें कुरार (सतारा जिला) में बतौर
जागीर 24 गाँव प्रदान किए थे। शाहजी को शिवनेर और पूना की जागीरवारी पैतृक विरासत
से प्राप्त हुई थी इस पर उन्होंने अपना अधिकार बनाए रखा था।
शिवाजी का जन्म 10 अप्रैल / 20 अप्रैल 1627 ई. में पूना के निकट शिवनेर में शाहजी की पत्नी जीजाबाई से हुआ।
शिवाजी को बचपन के दिनों में अपने पिता का सानिध्य नहीं मिल पाया क्योंकि
शाहजी बीजापुर के सरदार के रूप में कर्नाटक के अभियान में व्यस्त रहे थे (1630-
36) I (Some Book - शाहजी ने तुकाबाई मोहिते नामक एक अन्य स्त्री से विवाह कर लिया था और
जीजाबाई अपने पुत्र को लेकर अपने पति से अलग रहती थीं)।
1636 ई. में जब शिवनेर का किला शाहजी के हाथ से निकल गया तो शिवाजी
को अपनी मां के साथ दादाजी कोणदेव के संरक्षण में पूना जाना पड़ा था। ऐसा नहीं था
कि शाहजी ने शिवाजी का बिल्कुल ध्यान नहीं रखा था। शाहजी ने अपने वफादार दादाजी
कोणदेव को शिवाजी की देखभाल और
शिक्षा के लिए नियुक्त किया था। शिवाजी ने अपनी मां से साहस, दृढनिश्चय, अत्याचार का विरोध और
धर्म के प्रति रुचि प्राप्त की थीं। बचपन में ही शिवाजी गुरू रामदास से काफी
प्रभावित हुए उनके उपदेशों से शिवाजी में स्वाभिमान व राष्ट्रप्रेम की भावना का
विकास हुआ। चूंकि उनका लालन पालन पूना में हुआ, अत: वे बीजापुर दरबार के फारसी
प्रभाव से दूर थे।
अठारह वर्ष की आयु में (या 16 वर्ष की आयु में) उन्होने अपने पिता से
पूना की जागीर का पदभार संभाल दिया। अब शिवाजी ने पूना जिले के पश्चिम में स्थित
मावल सरदारों से दोस्ती कर ली और उनकी सहायता से पिता और बीजापुर की अवज्ञा करते
हुए पूना के अनेक निकटवर्ती दुर्गों को अपने अधिकार में लेना प्रारंभ कर दिया। इनमें
तोरन, चाकन और पुरंदर प्रमुख थे।
आरंभ से ही शिवाजी का उद्देश्य एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना हो
गया था। वह किसी भी मुस्लिम शासक के जागीरदार के रूप में जीवन व्यतीत करने को
तत्पर नहीं थे। ऐसे में उन्होंने बीजापुरी क्षेत्रों में भी लूटमार शुरू कर दी।
1643ई० में शिवाजी ने सिंहगढ़ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस पर बीजापुर के
सुल्तान का अधिकार था।
1647 ई. में अभिभावक कोणदेव की मृत्यु के बाद उन पर नियंत्रण करने
वाला जब कोई नहीं रहा, तब शिवाजी ने बीजापुरी क्षेत्रों में लूटमार की प्रवृति और
बढ़ा दी।
शिवाजी के इन कार्यों से रुष्ट होकर बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी को
बंदी बनवा लिया, ऐसे में शिवाजी ने मुगलों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया,
लेकिन इसमें उसे सफलता नहीं मिली। अंतत: 16 मई, 1649 को बीजापुर को बंगलौर और
कोंडन का किला सौंप देने के बाद शाहजी को मुक्त कर दिया गया। लेकिन शिवाजी की
प्रवृतियो में कुछ विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
जावली अधिकार :
1656 ई0 में शिवाजी को उल्लेखनीय सफलता उस समय मिली जब उन्होंने
जावली को वहां के मराठा सरदार चन्द्रराव मोरे से छीन लिया और इसके फलस्वरूप वे
मराठों में अग्रणी हो गए। इस अधिग्रहण से उनका मावल क्षेत्र. पर अधिकार हो गया और
- पश्चिम में सतारा और कोंकण की विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया। इसके अलावा मावल
सैनिकों के शिवाजी की सेना में शामिल हो जाने से शिवाजी की सैन्य शक्ति जी काफी
मजबूत हो गई।
मुगलो से टक्कर: -1657
ई. में शिवाजी का पहली बार मुगलों से मुकाबला हुआ जब बीजापुर की सहायता करने के
लिए शिवाजी ने मुगलों के दक्षिणी पश्चिमी भाग पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। इसी
समय शिवाजी ने जुन्नार को लूटा और जगह-जगह पर मुगलों को तंग किया। परन्तु जब
मुगलों ने बीजापुर से संधि कर ली तो शिवाजी ने भी मुगलो पर हमले करने बंद कर दिए।
बीजापुर से टक्कर
औरंगजेब के उत्तराधिकार युद्ध के कारण से दक्कन से चले जाने पर
शिवाजी को रोकने वाला कोई नहीं रहा, जिसकी कीमत बीजापुर को चुकानी पड़ी । शिवाजी ने
शीघ्र ही कल्याण और भिवंडी और माहुली पर कब्जा जमा लिया। इस प्रकार शिवाजी ने कोलाबा
जिले के समस्त पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया जो जंजीरा के सीद्दियों के अधिकार में
था। -शिवाजी ने कोंकण क्षेत्र पर भी धावा बोल दिया और उसके उत्तरी भाग पर अधिकार
भी कर लिया। ऐसे में बीजापुर के शासक अली
आदिलशाह द्वितीय ने 1659 ई. में अपने सेनापति अफजल खाँ के नेतृत्व में एक
बड़ी सेना शिवाजी के विरुद्ध भेज दी। शिवाजी के खिलाफ कूच करने के दौरान बीजापुर की सेना हिन्दुओं के तीर्थ स्थलों, विशेषकर
महाराष्ट्र के सबसे महत्वपूर्ण केंद्र पंढरपुर को अपवित्र करने के लिए घुमावदार
मार्ग से गई। यह प्रवृति बीजापुर की
बढ़ती रूढ़िवादिता का प्रतीक था, अन्यथा बीजापुर इस प्रकार के कार्य नहीं करता था।
लेकिन शिवाजी ने अपने आपको वाई के दुर्ग में सुरक्षित कर लिया। इस पर
अफजल ने कूटनीति से शिवाजी को समाप्त करने का प्रयास किया। समझौता वार्ता के दौरान
उसने शिवाजी का गला घोटने का प्रयास किया, लेकिन शिवाजी को कुछ लोगों से अफजलखाँ
की कुटनीति की पहले ही जानकारी प्राप्त हो गई थी और उन्होने अपनी सुरक्षा का
बंदोबस्त पहले से कर दिया था। जब अफजल खाँ ने शिवाजी का गला घोट- दबा दिया और
दूसरे हाथ से शिवाजी पर तलवार से प्रहार किया, तो शिवाजी ने कवच से
अपनी रक्षा की और बाघनख तथा कटार अफजलखाँ के पेट मे घोंप दी। इसके बाद जंगल में छिपी मराठा सेना ने बीजापुरी
सेना को परास्त कर दिया।
इस सफलता के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग और दक्षिण कोंकण और
कोल्हापुर जिले के बड़े भाग पर अधिकार कर लिया। बीजापुर ने इस पर सीद्दी जौहर को
शिवाजी के खिलाफ भेजा। इस बीच शाहजी के हस्तक्षेप के कारण और मुगलों के बढते हुए दबाव
को देखते हुए 1662-63 ई. में शिवाजी ने बीजापुर से समझौता कर लिया। शिवाजी ने
पन्हाला और चाकन के दुर्ग बीजापुर को लौटा दिए, साथ ही यह समझौता भी हुआ कि वे
एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करेंगे और मुगलों का मिलकर विरोध करेंगे।
इसके पश्चात् शिवाजी का बीजापुर के साथ कोई महत्वपूर्ण संघर्ष नहीं
हुआ, यद्यपि 1678 ई. मे शिवाजी ने पन्हाला को पुन, जीत लिया और 1677-78 ई. में
बीजापुर से उन किलो को जीत लिया जो बीजापुर ने गोलकुंडा से जीते थे।
शाइस्ता खाँ और शिवाजी
शिवाजी के बढते हुए प्रभाव
को रोकने हेतु औरंगजेब ने जुलाई 1659-60 में मुअज्जम के स्थान पर शाइस्ताखों को दक्षिण का
सूबेदार नियुक्त किया। शिवाजी पर आक्रमण करने से पूर्व शाइस्ताखाँ ने बीजापुर को
अपने पक्ष में कर लिया और फिर 1660 में पूना पर अधिकार कर लिया। चाकन और कल्याण से
भी शिवाजी को हाथ धोना पड़ा।
ऐसे में अप्रैल 1663 ई. में रात्रि में शिवाजी ने केवल चार सौ सैनिको
के साथ पूना में शाइस्ता खाँ के खेमें पर धावा बोल दिया, शाइस्ताखों गंभीर रूप
'घायल हो किसी तरह से से भाग निकला लेकिन उसके पुत्र तथा सेनानायक को मार दिया
गया।
इस पर औरंगजेब ने शाइस्ताखा को वापस बुला दिया और मुअज्जम को पुन, सूबेदार नियुक्त कर दिया।
सूरत की लूट
उपर्युक्त विजय से प्रोत्साहित होकर शिवाजी ने फरवरी 1664 में मुगलों
के प्रसिद्ध बंदरगाह नगर सूरत पर धावा बोल दिया और चार दिन तक उसे लूटा, मुगल
किलेदार भाग गए। इससे मुगलो की प्रतिष्ठा को बड़ा झटका पहुँचा। सूरत साम्राज्य का
प्रमुख बंदरगाह था। मुगल बादशाह और
उनके सामंत यहां से जाने वाले मालवाहक जहाजों में आमतौर पर पूंजी निवेश करते थे।
मक्का जाने वाले यात्री सूरत से ही प्रस्थान करते थे । अत: उसे
‘जाबुल मक्का” कहा जाता था। इस अभियान से मराठो को एक करोड़ रुपए से अधिक राशि का
माल और बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त हुई। शिवाजी ने - में मुगलों' की राजधानी
औरंगाबाद के बाहरी क्षेत्रों पर भी हमला किया।
जयसिंह का दक्षिण आगमन और पुरंदर की संधि
उपरोक्त विषम परिस्थितियों के कारण 1665 ई में औरंगजेब ने मिर्जा
राजा जयसिंह को दक्कन का नया सूबेदार नियुक्त किया और उसे शिवाजी से निपटने और
बीजापुर को कब्जे में करने के पूरे अधिकार दे दिए।
जयसिंह ने शिवाजी को नियंत्रित करने के लिए कूटनीति और शक्ति दोनों
माध्यमों का प्रयोग किया। शिवाजी को अकेला करने के लिए उसने सर्वप्रथम बीजापुर को
अपने पक्ष में कर लिया। वे सभी मराठा सरदार जो शिवाजी से ईर्ष्या करते थे, को मुगल सेवा में आने हेतु
प्रोत्साहित किया गया । उसने शिवाजी के सरदारों को भी लालच देकर अपनी ओर मिलाने का
प्रयास किया। यूरोप की व्यापारिक कंपनियों और जंजीरा के सीद्दियों को भी शिवाजी के विरुद्ध सहयोग देने का कहा
गया। इतना ही नहीं शिवाजी को कमजोर करने के लिए उनकी जागीर पूना के आस-पास के अनेक
गाँवों को भी तहस-नहस कर दिया गया।
इसके बाद जयसिंह ने 1665 ई. में पुरंदर के किले पर घेरा डाल दिया
जहां पर शिवाजी का परिवार और खजाना सुरक्षित था, मुगलों के खिलाफ सारे प्रयास विफल
होने के बाद शिवाजी जयसिंह के साथ संधि करने को विवश हुए, जो पुरंदर की संधि ( जून
1665) कहलायी। इस संधि के अनुसार
(i) शिवाजी
के पास जो 35 किले थे, उनमें से 23 किले और उनके आस-पास के इलाके जिनसे प्रति वर्ष
4 लाख पूण का राजस्व प्राप्त होता था
मुगलो को दे देने थे।
1 लाख हूण की आय के राजगढ़ सहित 12 किले शिवाजी के हाथ में
ही रहने दिए गए, जिसके बदले में शिवाजी ने मुगलो का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
लेकिन शिवाजी को मुगल दरबार में व्यक्तिगत सेवा करने की छूट दे दी गई, लेकिन
शिवाजी ने अपने स्थान पर अपने नाबालिग पुत्र
शंभाजी को 5000 घुडसवारों के साथ मुगलों की सेवा मे भेजना स्वीकार कर लिया (
अर्थात् शंभाजी को 5000 जात का मनसब प्रदान किया
गया।
(2) बीजापुर राज्य के चार लाख हूण की आय के जो इलाके (कोंकण आदि)
शिवाजी के हाथों में थे उनके अधिकार में ही रहने दिए गए। शिवाजी को बीजापुर के
विरुद्ध मुगलों को सहायता प्रदान करनी थी।
इसके अलावा बीजापुर राज्य का बालाघाट क्षेत्र, जिसकी 5 लाख हूण वार्षिक आमदनी थी, जिसे
शिवाजी जीतना चाहता था, को जीतने की अनुमति भी शिवाजी को दे दी गई। लेकिन इसके
बदले शिवाजी को किस्तों में (13 वर्षो में) 40 लाख हूण मुगलसम्राट को देने थे। ( यह शर्त बाद में जोड़ी
गई थी)।
यह शर्त मुगलों के लिए काफी लाभकारी साबित हो सकती थी क्योंकि इससे
शिवाजी और बीजापुर एक दूसरे के शत्रु हो गए थे और दूसरे शिवाजी की शक्ति इन
क्षेत्रों में लग जाने की संभावना थी।
संधि की वार्ता के दौरान चौथ और सरदेशमुखी के बारे में भी बातचीत हुई
थी। किसी एक क्षेत्र को बरबाद न करने के बदले दी जाने वाली रकम को 'चौथ' कहा जाता
था। शिवाजी यह कर प्रतिवर्ष बीजापुर तथा मुगल राज्य क्षेत्र से वसूल करते थे।
सरदेशमुखी का दावा करके शिवाजी अपने को सर्वश्रेष्ठ देशमुख (नेता) के रूप में
प्रस्तुत करना चाहता था, इन पर कोई निर्णय नहीं हो सका। लेकिन जयसिंह ने बड़ी चतुराई के साथ शिवाजी
और बीजापुर के विरुद्ध शत्रुता का एक सबब प्रस्तुत कर दिया था। लेकिन जयसिंह की
योजना की सफलता इस बात पर तय करती थी कि शिवाजी ने जितनी आमदनी के इलाके मुगलो को
सुपर्द किए थे, उतनी आमदनी के इलाके बीजापुर से छीनने में मुगल उसका सहयोग करते।
यह समझौते का भारी दोष साबित हुआ।
औरंगजेब का मन शिवाजी की तरफ साफ नहीं था और उसे बीजापुर पर मुगल- मराठा अभियान की बुद्धिमानी
पर संदेह था। लेकिन जयसिंह की योजना काफी दूरदर्शिता पूर्ण थी उसका मानना था कि यदि एक बार बीजापुर तथा बाकी दक्कन पर
मुगलों का अधिकार हो जाए तो शिवाजी के पास मुगलों का मित्र बनने के अलावा कोई
चारा नहीं रहेगा । जयसिंह ने औरंगजेब को इस संदर्भ मे लिखा भी था " शिवाजी को वृत्त के
बिंदु की तरह हम चारों तरफ से
घेर लेगे”।
लेकिन औरंगजेब ने इस योजना में विशेष रूचि नहीं दिखाई और पूरी तरह से
सैन्य सहयोग नहीं मिलने के कारण (जयसिंह
ने बीजापुर अभियान के समय स्वयं सम्राट को दक्षिण आने का कहा था और उसके पास पर्याप्त सैन्य
उपकरण भी नहीं थे) बीजापुर के खिलाफ मुगल मराठा अभियान विफल रहा। शिवाजी को
पन्हाला का किला जीतने के लिए नियुक्त किया गया था, लेकिन उसमें भी वह असफल रहा।
अपनी आँखों के सामने अपनी भव्य योजना के महल को ढहता देख कर जयसिंह ने शिवाजी को आगरा जाकर सम्राट से
मिलने के लिए राजी कर लिया। जयसिंह ने सोचा यदि शिवाजी और औरंगजेब के बीच मधुर संबंध स्थापित हो जाए तो बादशाह को
बीजापुर पर नए सिरे से आक्रमण करने के लिए अधिक संसाधन सुलभ कराने पर राजी किया जा
सकता है। लेकिन शिवाजी की आगरा यात्रा सर्वथा निष्फल साबित हुई।
शिवाजी की आगरा यात्रा:
1666 ई में शिवाजी अपने पुत्र शम्भाजी और 400 मराठों के साथ आगरा के
लिए रवाना हुए। शिवाजी की सुरक्षा की जिम्मेदारी स्वयं जयसिंह और मुगल दरबार में उसके
प्रतिनिधि और पुत्र रामसिंह ने ली।
मई 1666 में रामसिंह औरंगजेब के जन्मदिन के अवसर पर शिवाजी को मुगल दरबार में लेकर गया।
दरबार में जब शिवाजी को पाँच हजारी मनसबदारों की श्रेणी में खड़ा होने
का कहा गया तो शिवाजी ने काफी अपमान महसूस किया, क्योंकि यह दर्जा तो पहले ही उसके
नाबालिग पुत्र को मिल चुका था। बादशाह शिवाजी से बातचीत करने की फुर्सत ही
नहीं निकाल सका। अत: शिवाजी क्रोध में वहां से उठ खड़े हुए
और साम्राज्य की सेवा में प्रवेश करने से ही इंकार कर दिया। लेकिन मुगल अदब के
विरुद्ध किए गए इस कार्य के कारण शिवाजी को रामसिंह की निगरानी में जयपुर भवन में नजरबंद कर दिया गया।
उनके दरबारी शिवाजी को कठोर सजा देने के पक्ष में थे, लेकिन चूंकि
शिवाजी जयसिंह के आश्वासन पर वहां आए थे, इसलिए औरंगजेब ने सलाह के लिए उसे पत्र
लिखा । उत्तर में जयसिंह ने शिवाजी के साथ नरमी का व्यवहार करने का अनुरोध किया।
लेकिन जब तक कोई फैसला होता शिवाजी नजरबंदी से भाग गए (1666 ई.) और 25 दिन के
बाद रायगढ़ पहुँच गए।
इस घटना में रामसिंह का हाथ होने के संदेह पर क्रोधित होकर औरंगजेब
ने जयसिंह को दक्कन से हटाकर काबुल भेज दिया और
मुअज्जम को दक्षिण में नियुक्त कर दिया। सजा स्वरूप रामसिंह को भी असम भेज दिया
गया, जो अपनी दलदली भूमि और खराब मौसम के लिए जाना जाता था।
इस तरह औरंगजेब ने
मराठों से दोस्ती का एक सुनहरा अवसर गँवा दिया। वह शिवाजी को एक मामूली सा भूमिया
(जमींदार) से ज्यादा मानने को तैयार नही था। लेकिन शिवाजी के संबंध में औरंगजेब द्वारा लगातार अपनी शंकाओं को पकड़कर
बैठे रहना, उसके महत्व को नकारने की जिद और उसकी
मित्रता के महत्व को कम करके आंकना - यह सब औरंगजेब द्वारा की गई भारी राजनीतिक
भूल थी।
दक्कन वापस लौटकर शिवाजी ने अगले तीन वर्षों
तक मुगलों पर हमला नहीं किया और अपनी शक्ति कोंकण को सुदृढ़ करने में लगा दी। लेकिन
मुगलो से शांति 1669 में भंग हो गई। मुगलों ने शिवाजी को आगरा यात्रा के लिए दिए
गए 2 लाख रुपये वसूलने के लिए बरार स्थित
शिवाजी की जागीर पर हमला बोल दिया। 'इस पर शिवाजी ने भी पुरंदर की संधि के तहत
मुगलों को दिए गए कई दुर्गो पर धावा
बोल दिया और 1670 में कोडाना के किले को जीत लिया। नानजी ने इसे बड़े साहस से जीता
था, अत: शिवाजीने इसे सिंहगढ़ नाम दिया । शीघ्र ही शिवाजी ने पुरंदर, कल्याण, ,
लौहगढ़, माहुली और नांदेड़ आदि को भी कब्जे में कर लिया।मुगलों के उत्तर पश्चिम में
अफगान विद्रोह के दमन में व्यस्त रहने से शिवाजी को इस काम में काफी सुविधा हुई (
बगलाना, नंदुरबार, चौरागढ़ आदि किले भी मराठो के अधिकार में आ जाए)।
इस काल में बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु (Nov. 1672) व उसके 4 वर्षीय
पुत्र के सुल्तान बनने से फैली अव्यवस्था का
फायदा उठा शिवाजी ने बीजापुर से पन्हाला (मार्च 1673), पारली (Apr. 1673) और सतारा (जुलाई
1673) के किलों पर भी अधिकार कर लिया।
राज्याभिषेक
1674 ई. में शिवाजी ने राजगढ़ में विधिवत राजमुकुट धारण कर लिया। उस युग के महान्
-वेदज्ञ और बनारस के महान पंडित विश्वेश्वर उर्फ गंगाभट( जो मूलतः महाराष्ट्र के ही थे) ने शिवाजी को
क्षत्रिय माना, उदयपुर के राजपूत वंश से
उसका संबंध बताया और शिवाजी का राज्याभिषेक स्वयं
करना स्वीकार किया। जून 1674 ई. को बड़ी धूमधाम से शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ,
शिवाजी ने 'छत्रपति "हैंदवधर्मोद्धारक तथा गौ ब्राह्मण प्रतिपालक’ की उपाधि धारण की तथा राजगढ़ को अपनी राजधानी बनाया।
शिवाजी के राज्याभिषेक को सत्रहवी सदी की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक
घटना माना गया। इससे शिवाजी एक सामान्य जागीरदार की हैसियत से काफी आगे बढ़ चुके
थे। अब वह मराठा सरदारों में सबसे अधिक शक्तिशाली थे और अपने राज्य विस्तार तथा
सेना की विशालता की दृष्टि से जीर्ण-शीर्ण दक्कनी सुल्तानों की बराबरी के दर्जे का
दावा कर सकता था। इस प्रकार इस औपचारिक घटना
के कई प्रयोजन थे ।
इससे वे अन्य सभी मराठा सरदारों से काफी उच्च हो गए और अन्य मराठा
सरदारों को उनकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। अपनी सामाजिक स्थिति को मजबूत बनाने के
लिए शिवाजी ने मोहिते, शिर्के
आदि प्रमुख मराठा सरदारों से वैवाहिक संबंध भी स्थापित किए। राज्याभिषेक के समय
उनको विधिवत रूप से क्षत्रिय भी मान लिया गया था। इससे भी बढकर इस घटना का महत्व
यह था कि अब वह दक्कती सुल्तानों के साथ
किसी बागी सरदार की तरह नहीं बल्कि समक्ष राजा के रूप में संधि संबंध स्थापित कर सकता था। मराठा राष्ट्रीयता की भावना
की दिशा में भी यह एक महत्वपूर्ण कदम था।
कर्नाटक अभियान
शिवाजी की जीवन की अंतिम
महत्वपूर्ण घटना बीजापुरी कर्नाटक पर अधिकार करने के लिए 1676-77 में किया गया
उसका अभियान था। इसके लिए शिवाजी ने पहले गोलकुंडा के दो ब्राह्मण मंत्रियो मदन्ना
और अकन्ना के माध्यम से गोलकुंडा के कुतुबशाही सुल्तान से संधि कर ली। इसके तहत तय
हुआ कि कुतुबशाह शिवाजी को आर्थिक सहायता के तौर पर सालाना एक लाख हुण( 5 लाख ₹)
देगा। बदले में शिवाजी ने गोलकुंडा को बीजापुर के जिंजी एवं अन्य क्षेत्र देने का
वादा किया।
गोलकुंडा की सहायता से शिवाजी ने कर्नाटक में प्रवेश करके जिंजी और
वेलूर के महत्वपूर्ण किलो को जीत लिया तथा तुंगभद्रा से लेकर कावेरी तक के कर्नाटक
के भाग पर (पूर्वी कर्नाटक) अधिकार कर लिया। जिंजी को शिवाजी ने अपने इस क्षेत्र
की राजधानी बना दिया जो कि बाद में मुगलों के साथ संघर्ष के दौरान उसके पुत्र
राजाराम के लिए एक महत्वपूर्ण शरणस्थल साबित हुआ। लेकिन उपरोक्त संधि के अनुसार
जिंजी गोलकुंडा को दिया जाना था, इस कारण गोलकुंडा शिवाजी से नाराज हो गया।
कर्नाटक क्षेत्र में ही शिवाजी का सौतेला भाई व्यकोंजी अपने पिता की पैतृक
जागीर पर अधिकार किए हुए थे, शिवाजी ने
उसमें से आधा भाग मांगा। मना करने पर शिवाजी ने उसके प्रदेशों पर आक्रमण कर दिया
तथा कावेरी नदी के उत्तर के सभी भागों पर अधिकार कर लिया।
इसी समय मराठा राज्य में
उत्तराधिकार के लेकर कुछ मतभेद उठ खड़ा हुआ जब शिवाजी ने राजाराम की कम उम्र का
ध्यान रखते उसे देस और कोंकण का क्षेत्र और बड़े बेटे शंभाजी को कर्नाटक का
कार्यभार सौंपा। लेकिन शंभाजी देस छोड़ने को तैयार नहीं थे, अत: उसने मुगल सेनापति
दिलावर खाँ के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया। विद्रोह का दमन कर दिया गया और शंभाजी
को पन्हाला के दुर्ग में कैद कर दिया गया।
इसके बाद 1679 में सूरत को पुनः लूटा तथा बीजापुर से पन्हाला का किला
भी जीत लिया। लेकिन शिवाजी का अंतिम समय नजदीक आ गया था और 53 वर्ष की उम्र में
अप्रैल 1680 में शिवाजी की मृत्यु हो गई।
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