"शिवाजी का राज्य यद्यपि एक निरंकुश राजतंत्र था तथापि इसमें
जनकल्याण को प्रमुखता दी गई थी। "शिवाजी राज्य की हिन्दू-मुस्लिम प्रजा को एक
नजर से देखते थे लेकिन संभवतः वे प्रशासन के प्राचीन आदर्शों को पुनर्जीवित करना
चाहते थे या जनता में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहते थे, अतः उन्होंने स्वयं को गाय –
ब्राह्मण का रक्षक', धर्म परायण आदि के रूप में वर्णित किया था।
शिवाजी ने फारसी के स्थान पर मराठी को राजभाषा बनाया था और उसकी
प्रगति के लिए रघुनाथ पंडित हनुमंते के नेतृत्व में एक समिति नियुक्त कर ‘
राजव्यवहार कोश’ नामक एक " शब्द कोश तैयार करवाया था।
लेकिन इस सबके बावजूद शिवाजी की शासन प्रणाली बहुत हद तक दक्कन
राज्यों के प्रशासनिक तौर-तरीकों पर ही आधारित थी। साम्राज्य की सर्वोच्च शक्ति
शिवाजी के हाथ में थी और शिवाजी की सहायता के लिए आठ बडे अधिकारी अथवा मंत्री होते थे। जिन्हें 'अष्ट
प्रधान' कहा जाता था। यह व्यवस्था शिवाजी की देन नहीं थी, यह तथा दक्कन में
पहले से विद्यमान थी, हाँ शिवाजी ने अधिकारियों के लिए संस्कृत नामों का प्रयोग
जरूर किया था। अष्ट प्रधान में न तो आधुनिक मंत्रीपरिषद की तरह सामूहिकता का
सिद्धांत था और न ही अष्ट प्रधान के सदस्यों की हैसियत मंत्री जैसी थी। प्रत्येक
मंत्री (या सदस्य) सीधे राजा के अति उत्तरदायी होता था और उसका कार्य सलाहकार के
रूप में ही होता था अर्थात् ये अष्टप्रधान सचिव की हैसियत से ही काम करते थे।
इन अष्ट प्रधानों के पद
स्थायी और वंशानुगत भी नहीं थे और पूरी तरह से राजा की कृपा पर निर्भर करते थे। उन्हें सीधे राजकोष से
वेतन दिया जाता था, इनकी तरह ही किसी भी सैनिक या नागरिक अधिकारी को जागीर नहीं दी
जाती थी, यद्यपि शिवाजी के बाद के काल में (पेशवा प्रभुत्व काल में) ये पद
आनुवंशिक और स्थायी प्रकृति के बन गए थे।
थे अष्ट प्रधान इस प्रकार थे- (1) पेशवा ( प्रधानमंत्री ) (2) आमात्य
/ मजुमादार - लेखापाल (Accountant) (3) मंत्री (बकनीस / वाकियानवीस) - (4)
सुरूनविस(चिटनीस) (सचिव) – वित्त मंत्री एवं पत्र व्यवहार की देखभाल (5) सुमंत
(दबीर / विदेश सचिव) (6) सेनापति - या सर ए नौबत (7) न्यायाधीश (8) पंडितराव: धर्म मंत्री ।
(1) पेशवा:
अष्टप्रधानों में पेशवा की स्थिति कुछ श्रेष्ठ थी, परन्तु अन्य प्रधान किसी तरह
उसके अधीन नहीं थे। वह नागरिक और सैन्य मामलों का सर्वोच्च अधिकारी था।
(4) मजमुआदार /आमात्य: राज्य का लेखपाल था और आय - व्यय की
लेखा-परीक्षा करता था। -
(3) मंत्री या वाकियानवीस (बकनीस) - यह राजा का रोचनामचा रखता था,
उससे मिलने-जुलने वालो की देखभाल करता था और राजा की सुरक्षा का जिम्मा भी इसी
परथा। गुप्तचर एवं सूचना विभाग का कार्य भी संभालता था।
(स) सचिव या शुरूनवीस (चिटनीस) राजकीय पत्र व्यवहार की देखभाल करना तथा परगनों की आय-व्यय की देखभाल करना इसका
कार्य था। (वित्तमंत्री की तरह)
(5) सुमंत या विदेश सचिव: विदेश मामलों की देखभाल करता था।
(6) सर ए
नौबत (सेनापति) - सेना का प्रधान था
(7) न्यायाधीश- न्याय विभाग का
प्रधान था।
(8) पंडित राव - विद्वानों और धार्मिक
कार्यों के लिए दिए जाने वाले अनुदानों का प्रबंधन करता था और धार्मिक कार्यों को
निश्चित करना, प्रजा के नैतिक
चारित्र को सुधारना भी इसके कार्य थे।
सेनापति के अतिरिक्त सभी
प्रधान ब्राह्मण
थे और पंडितराव तथा न्यायाधीश
के अलावा सभी को अवसर पड़ने पर सेना का नेतृत्व करना होता था।
अष्ट प्रधानों की
सहायता के लिए अनेक (8) सहायक होते थे।
प्रशासनिक ईकाइयां
शिवाजी ने अपने राज्य को प्रांतों में विभक्त किया था। स्वराज
क्षेत्र तीन प्रांतों में विभक्त था -
(1)
उत्तरी प्रांत जिसमे देस (पुणे) से लेकर सूरत तक का क्षेत्र था।
(2) दक्षिणी प्रांत कोंकण तथा उत्तरी कनारा क्षेत्र
(3) द.पू. प्रांत
- सतारा व कोल्हापुर आदि क्षेत्र।
कुछ क्षेत्र जिन्हें अंतिम
समय में जीता गया था और जिन्हें मुगलई कहा जाता था को प्रांत के रूप में पूरी तरह संगठित नहीं किया जा सकता था (NCERT-4 प्रांत)।
प्रांतों का शासन सुबेदारों
के हाथ में था, लेकिन इन सूबेदारों पर एक सरसुबेदार नियुक्त किया गया था, जो उन पर निगरानी रखता था। प्रांत वापस क्रमशः परगनो, तरफो और मौजा में बँटे हुए थे। (परगना----'-तरफ
---मौजा(गाँव समूह))
सैन्य प्रबंधन
शिवाजी ने अपनी सैन्य व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया था। शिवाजी ने
अपने सैन्य प्रबंधन में किलों के निर्माण और उसकी सुरक्षा पर खूब ध्यान दिया था।
कोई भी तालुका या परगना बिना किले के नहीं था। अपने जीवन काल
में शिवाजी ने लगभग 250 किलो का निर्माण करवाया था। धोखेबाजी से बचने के लिए
शिवाजी ने किलो की जिम्मेदारी तीन समकक्ष अधिकारियों को सौंप रखी थी। प्रत्येक
किले में एक हवलदार, एवं सबनिस और एक सरनोबत होता था। इनमें से सबनिस ब्राह्मण
होता था जबकि शेष दोनों में से एक कुनबी और एक मराठा होता था।। सबनिस नागरिक और राजस्व प्रशासन को देखता था और शेष दो सैन्य
संचालन और रसद व्यवस्था संभालते थे। इन अधिकारियों को जातीय संगठन बनाने की इजाजत
नहीं थी। इस प्रकार विभिन्न जाति
के अधिकारी बनाकर तथा उन्हे जातीय संगठन बनाने से रोककर शिवाजी ने यह प्रयत्न किया
था कि किसी एक अधिकारी के शत्रुपक्ष के साथ मिल जाने पर भी किला शत्रुपक्ष के हाथ में न चला जाए।
इसके अलावा शिवाजी ने
विस्तृत रूप से यह तय कर रखा था कि किस किले में कितने सैनिक होंगे, कितनी रसद
होगी कितने शस्त्र होगे, फाटक
खोलने -बंद करने का समय
क्या होगा। शिवाजी को इस
व्यवस्था की प्रेरणा बीजापुरी व्यवस्था से मिली थी।
शिवाजी ने एक विशाल स्थायी सेना तैयार की थी। शिवाजी अपने स्थायी
सैनिकों को नकद वेतन देने के ही पक्ष में थे, हालांकि कभी कभी सरदारों को
राजस्वदान (सर अंजाम ) भी दिए जाते थे। सेना
में कड़ा अनुशासन बरता जाता था और किसी स्त्री या
नर्तकी को सेना के साथ ले जाने की अनुमति नहीं थी। लडाई में हर सिपाही द्वारा लूटे
गए माल का पूरा हिसाब रखा जाता था।
शिवाजी की मृत्यु के समय सेना का मुख्य भाग घुडसवार और पैदल सेना थी
। शिवाजी की सेना में दो तरह के घुडसवार थे 1, पागा या शाही घुडसवार, जिन्हे बरगीर
भी कहा जाता था और जिन्हें घोडे और अस्त्र
राज्य की तरफ से दिए जाते थे और (1) सिलेदार जो अपने घोडे या अस्त्र-शस्त्र स्वयं खरीदते थे। ये अस्थायी सैनिक थे।
पागा घुडासवार सेना का
नियमित संगठन था। 25 बरगीरों के दल पर एक हवलदार होता था। (5 हवलदारों के दल
(जुमा) पर एक जुमलादार होता था। दस जुमलों पर एक हजारी' होता था और पांच हजारी पर
एक पंचहजारी होता था। पचहजारी सरनोबत (सेनापति) के अधीन होता था ।।
पैदल सेना के अधिकारियों में भी इसी प्रकार का पद विभाजन था। शिवाजी
की एक अंग रक्षक सेना भी थी, जिसमें 20,000 मावले सैनिक शामिल थे। सेना का एक कार्य कुशल गुप्तचर विभाग भी था।
कोंकण पर विजय करने
के बाद शिवाजी ने एक मजबूत नौसेना स्थापित करने का प्रयास किया था। उनकी नौसेना
में 400 जहाज थे। यह नौसेना मुख्य रूप से कि यूरोपीय लोगों का सामना करने,
जजीरा की सीद्दियों का मुकाबला
करने के लिए बनाई गई थी। । सीद्दी
लोग अबीसीनियाई मुसलमान थे और उनका कई बंदरगाहों पर अधिकार था और उनके पास एक विशाल नौसेना भी थी।
लेकिन यूरोपीयों और सीद्दियों
की तुलना में शिवाजी की नौसेना दुर्बल थी, क्योंकि उनकी नौसेना के पास तोपखाने का
अभाव था। इसी दुर्बलता के कारण शिवाजी को जंजीरा के सीद्दियों के विरुद्ध सफलता नहीं मिल पाई थी।
शिवाजी की नौसेना का मुख्य कार्य अपने समुद्र तट की रक्षा करना, अपने
तट पर आए जहाजों से व्यापारिक
कर वसूलना और समुद्र तट पर टूटे जहाजों के सामान को अपने अधिकार
में करने तक सीमित था।
राजस्व प्रशासन
मुद्रा, व्यापारिक कर और भू-लगान शिवाजी की आय के स्थायी स्रोत थे,
परन्तु यह उनकी सेना और शासन व्यय के लिए पर्याप्त नहीं थे। इस कारण शिवाजी ने अपनी
आय का मुख्य साधन चौथ और सरदेशमुखी को बनाया था।
शिवाजी का कहना था कि देश के सबसे बड़े और वंशानुगत सरदेशमुख होने के
नाते और लोगों के हितो की रक्षा के बदले उन्हें सरदेशमुखी लेने का अधिकार है।
सरदेशमुखी उस प्रदेश की आम का 1/10 भाग होता था।
जिन प्रदेशों से चौथ वसूली जाती थी वह शिवाजी की राज्य सीमा से बाहर
होते थे।
लगान व्यवस्था संबंध में जो
कि है रैयतवाड़ी
बंदोबस्तपर आधारित थी, मलिक अंबर की व्यवस्था का अनुकरण किया गया था। । लेकिन मलिक अंबर माप की इकाइयों का मानकीकरण
में असफल हुआ था, किन्तु शिवाजी ने इसका मानकीकरण करवाते हुए रस्सी के स्थान पर काठी (मापन की छड़ी) का प्रयोग आरंभ करवा दिया था
(बीस काठी = 1 बीघा)।
1679 में शिवाजी ने अन्नाजी दत्तो द्वारा नए सिरे से भूसर्वेक्षण करवा
कर राजस्व निर्धारित करवाया था।
यद्यपि शिवाजी रैयतवाड़ी बंदोबस्त को पूरी तरह से लागू करना चाहते थे,
लेकिन यह सोचना सही नहीं है कि शिवाजी ने देशमुखी या जमींदारी प्रथा समाप्त कर
दी थी और अपने अधिकारियों को मोकासा
या जागीरें नहीं दी। लेकिन शिवाजी मिरासदारों या भूमि पर वंशानुगत अधिकार रखने
वाले लोगों पर कड़ी निगाह रखती थे। शिवाजी ने उनके किलों और
गढ़ियों को ध्वस्त करके उन्हें अनुशासन स्वीकार करने के लिए
मजबूर किया था।
NOTE - 1. आरंभ
में शिवाजी 33% लगान के रूप में
लेते थे, परन्तु जब उन्होंने स्थानीय करों को समाप्त कर दिया तो वे पैदावार का 40% लेने लगे थे। शिवाजी ने लगभग 40 तरह के स्थानीय करों को समाप्त कर दिया था, यह देखते 40% कर अधिक नहीं था।
2. शिवाजी बाहर से आने वाले किसानों को मुफ्त भूमि देते थे और जब तक
उस भूमि से समुचित पैदावार नही होती थी उस पर से लगान नहीं लेते थे।
न्याय प्रणाली - मराठा कोई व्यवस्थित न्यायिक विभाग
स्थापित करने में असफल रहे थे। ग्रामस्तर पर नागरिक मामलों की सुनवाई पाटिल (ग्राम
में पैतृक राजस्व अधिकारी) के कार्यालय में अथवा गांव के मंदिर में बड़े बूढ़े (पंचायत) करते थे। अभियान IAS ACADEMY
धार्मिक रूप से शिवाजी की
नीति उदार थी । हिन्दुओं, ब्राह्मणों और गौरक्षा की दुहाई देते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति
उन्होने सहिष्णुता पूर्ण व्यवहार किया था। जब भी क़ुरान की कोई प्रति उन्हें
प्राप्त होती वे ससम्मान उसे मुसलमान साथियों को पढने को दे देते थे। सेना में भी मुसलमानो को नियुक्त किया गया था।
इस तरह शिवाजी न केवल एक सुयोग्य सेनापति कुशल सेना नायक,
युद्धनीतिज्ञ तथा चतुर कूटनीतिज्ञ साबित हुआ, बल्कि उसने देश मुखों की शक्ति पर
अंकुश लगाकर एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की थी। सेना उसकी नीतियों को अंजाम
देने का एक प्रभावकारी उपकरण थी। यह सेना अपने वेतन के लिए बहुत हद तक पडौसी इलाको
की लूट पर निर्भर थी। लेकिन इसी से शिवाजी के राज्य को 'डाकू राज्य (विन्सेंट
स्मिथ) और युद्ध पर आधारित राज्य
कहना उचित नहीं होगा। हमने देखा था कि आगरा में उनकी नजरबंदी के समय कोई अव्यवस्था उनके राज्य में नहीं फैली थी। हालांकि उनके राज्य का स्वरूप क्षेत्रीय था, लेकिन उसका
एक निश्चित जन आधार था।
NOTE. - कुछ
आलोचकों ने शिवाजी को 'पहाड़ी चूहा), अलाउद्दीन और तैमूर लंग का हिन्दू संस्करण आदि
कह कर उसकी निंदा की हैं, जो उचित नहीं है। शिवाजी ने हिन्दू युद्ध प्रणाली में
एक नवीन बात जोड़ी थी कि " युद्ध
जीतने के लिए लड़ा जाता है, शौर्य प्रदर्शन हेतु नहीं।"
एक स्थायी व्यवस्था की स्थापना में शिवाजी की विफलता के कारण ?
शिवाजी की मृत्यु के 3 वर्ष बाद ही उनके द्वारा स्थापित राजव्यवस्था
समाप्त हो गई, जागीरदारी प्रथा पुनः प्रारंभ हो गई, पद पुनः वंशानुगत हो गए और
समाज में कई कुरीतियों ने वापस घर कर लिया। इसके पीछे हिन्दू
रूढिवादिता, मराठों में सौहार्द का अभाव और औरंगजेब का मराठों के खिलाफ अभियान मुख्य रूप से जिम्मेदार थी।
मराठो की प्रारंभिक सफलताओं ने हिन्दू रुढिवादिता को प्रोत्साहन
दिया, जिससे जातिवाद - और कर्मकांडों को बढ़ावा मिला, इससे मराठा एकता समाप्त होने
लग गई। ब्राह्मणों और मराठों में श्रेष्ठता हेतु विवाद छिड़ गया और वे आपस में झगड़ने लगे। शिवाजी भी मराठो की पास्स्परिक
प्रतिस्पर्धा और अपने वतनों (जागीरों) से प्रेम करने की मराठों की भावना को पूरी
तरह समाप्त नहीं कर सके थे। ऐसे में औरंगजेब के दक्षिण भारतीय अभियानों ने मराठों
को काफी कमजोर कर दिया।
शिवाजी के बाद
शिवाजी की मृत्यु के समय उनका बड़ा पुत्र शंभाजी पन्हाला में बंदी था। और शंभाजी
को अयोग्य मानते हुए अन्नाजी दत्तों
आदि मराठा सरदारों ने राजाराम को राजा घोषित कर दिया लेकिन शीघ्र ही सेनापति
हम्मीरराव मोहिते की सहायता से शंभाजी राजा बन गया और राजाराम सहित कई मराठा
सरदारों को बंदी बना दिया। शंभाजी के सलाहकार कवि कलश के प्रभाव से मराठों में
आपसी वैमनस्य बढने लग गया। ऐसे में बहुत से शिर्के परिवार के
सदस्य मुगलों के पक्ष मे
चले गए। लेकिन विलासिता
में डूबे शंभाजी ने स्थिति संभालने की तरफ कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। शिवाजी
कालीन सैन्य अनुशासन भी समाप्त हो गया । ऐसे में 1689 में औरंगजेब ने शंभाजी व कवि
कलश को आसानी से कैद कर दिया। शंभाजी पर
मुस्लिमों के उत्पीडन का आरोप लगाते हुए उसका शव कुत्तों के आगे फेंक दिया गया।
शंभाजी की विधवा येसूबाई ने कुछ समय तक मुगलों
का सामना किया, लेकिन अंततः वह तथा उसका
पुत्र शाहूजी मुगलों द्वारा कैद कर लिए गए। (शाहू को औरंगजेब की पुत्री जीनत उस निशा ने पुत्र की तरह पाला)
उधर शंभाजी की मृत्यु के बाद राजाराम मराठों का शासक बना। लेकिन उसे
भी मुगल आक्रमणों के कारण जिंजी में शरण लेनी पड़ी यही से 9 वर्ष तक मुगल मराठा संघर्ष चलता रहा। 1700 ई. में राजाराम की मृत्यु के बाद युद्ध का
संचालन उसकी विधवा ताराबाई ने संभाला।
उसने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी की संरक्षक के रूप में युद्ध संचालन किया।
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